रविवार, 11 अप्रैल 2010

मायावती और मूर्ति प्रेम

राहुल कुमार :
पार्कों में क़तार में खड़े पत्थर के हाथियों की सूँड या पूँछ 'मनुवादी गुंडे' तोड़ सकते हैं और उनकी रक्षा के लिए 'बहनजी' अपनी पुलिस पर भरोसा भी नहीं कर सकतीं.
जब दो हज़ार करोड़ की लागत से स्मारक बनाए गए हैं तो उनकी हिफ़ाज़त पर महज 53 करोड़ रुपए ख़र्च करने में क्या बुराई है? 'दलितों के आत्मसम्मान' के मायावती के तर्क और 'अरबों के आत्मसम्मान' के सद्दाम के नारे में फ़र्क़ दिखना बंद हो गया है.
ज़्यादातर मामलों में सद्दाम और मायावती की तुलना नहीं हो सकती लेकिन जीते-जी अपनी मूर्तियाँ बनवाने का शौक़ दोनों में एक जैसा दिखता है.
अपनी मूर्तियाँ लगवाने की गहरी ललक के पीछे कहीं एक गहरा अविश्वास है कि इतिहास के गर्त में जाने के बाद शायद लोग याद न रखें. मगर शख़्सियतों का आकलन इतिहास अपने निर्मम तरीक़े से करता है और उसमें मूर्तियाँ नहीं गिनी जातीं.
सोवियत संघ के विघटन के बाद क्रेमलिन में धड़ से टूटकर गिरा हुआ लेनिन की मूर्ति का सिर हो या फ़िरदौस चौक पर जंज़ीरों से खींचकर गिराई गई सद्दाम की मूर्ति, ये इतना तो ज़रूर बताती हैं कि उनके ज़रिए बहुत लंबे समय तक लोगों के दिलों पर राज नहीं किया जा सकता.
कहने का ये मतलब नहीं है कि मायावती की मूर्तियों के साथ भी ऐसा ही होगा या ऐसा ही होना चाहिए, मगर वे शायद ये नहीं समझ पा रही हैं कि ज्यादातर मूर्तियों की वर्ष के 364 दिन एक ही उपयोगिता होती है-- कबूतरों और कौव्वों का 'सुलभ शौचालय', 365वें दिन धुलाई के बाद माल्यार्पण.
स्मारकों की रक्षा के लिए बनाए जा रहे विशेष सुरक्षा बल में चिड़ियों को भगाने वालों को भर्ती किया जा रहा हो तो बात अलग है.
वैसे सुना है कि उन्हें किसी ने चाँद पर ज़मीन का टुकड़ा भेंट किया है, वहाँ मूर्तियाँ लगवाने के बारे में उन्हें सोचना चाहिए क्योंकि वहाँ कौव्वे और कबूतर नहीं हैं.

कोई टिप्पणी नहीं: