भारत एक बहु संस्कृति वाला देश है जहां हज़ारों कलाएं फलती-फूलती हैं सिनेमा भी एक कला है जो अन्य कलाओं की तरह ही हमारे समय और समाज को लक्षित कर उसकी बुनियादी तथा तात्कालीक चिंताओं और जिज्ञासाओं को अपने सृजनशीलता का एक जरुरी हिस्सा बनाता रहा है। यह सही है कि सिनेमा किसी दायरे में बंध कर चलने वाली कला नहीं है परंतु यह सामाजिक सरोकार से कटा हो, समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो यह भी सही नहीं है। आज ज्यादातर सिनेमा चिर-परिचित कथा सूत्रों, संगतिहीन घटनाओं के तानेबाने को जोड़-तोड़ कर बनाया जाता है जिससे बेवजह के हास-परिहास, भड़किले कामोत्तेजक नृत्य ,अनर्गल और कथ्य से बेमेल गीत होते हैं जो सिर्फ बाजारु रुचियों को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं। ऐसी फिल्में ना तो हमारे वर्तमान को प्रदर्शित कर पाती है और न हमारे भविष्य के मार्ग को प्रशस्त कर पाती है। मनोरंजन के नाम पर सिनेमा को आज एक ऐसा मंजन बना दिया गया है जिसे दर्शक मुंह में लेने के साथ थूक देता है।
फिल्म हमारे समाज का आईना होता है एक ऐसा आईना जो हमें हमारा भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों दिखाता है। यह सही है कि फिल्म और समाज एक बड़ा विषय है। एक ऐसा विषय जिस पर वर्षो से चर्चा होती रही है, समाज की चर्चा फिल्मों में और फिल्मों की चर्चा समाज में। असल में फिल्म और समाज एक समानान्तर चलने वाले ऐसी प्रक्रिया है जिसमें साथ-साथ चलने की मजबुत जरुरत भी है और एक-दूसरे से आगे निकल जाने की उदंड इच्छा भी।
यह विचारणीय सवाल है की जिस देश में ७०% आबादी गांव में रहती है वहां आज भी हिन्दी सिनेमा में से गांव लगभग गायब है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बनने वाली कई महत्वपूर्ण और लोकप्रिय फिल्मों में गांव का कथा का विषम बनाया गया था। दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, गंगा जमुना, जिस देश में गंगा बहती है नया दौर, दो आखें बारह हाथ, मुझे जीने दो, तीसरी कसम, उपकार, दो बूंद पानी दुश्मन, एक अधूरी कहानी, रेशमा, और शेरा, शोले, अंकुर, दुविधा, निशांत, मंथन, आक्रोश, सद्गति, दामुल, आरोहन, मिर्च मसाला, दीक्षा, रुदाली, जैसी अनेक फिल्मों के नाम गिनाये जा सकते है। परन्तु आज की मुख्य धारा फिल्मों में हम यह प्रवृति नहीं देखते हैं। आज की फिल्म में महानगरों और बड़े उद्योगपति परिवारों तक सिमित रहती है। यह वो परिवार है जिनका व्यवसाय अमेरिका और यूरोप के देशों में फैला हुआ है। और जो छुटियाँ मनाने यूरोप जाते है।
जाहिर है की समाज के एक बहुत छोटे से हिस्से ने हमारे समय के मनोरंजन के सबसे लोकप्रिय माध्यमों सिनेमा और टेलीविजन दोनों पर काफी हद तक कब्ज़ा कर लिया है। हम आपके हैं कौन, हम साथ साथ है, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, कुछ कुछ होता है, दिल तो पागल है, ताल, यादें, परदेश, हम दिल दे चुके सनम, मोहब्बतें, एक रिश्ता, आदि ऐसी फिल्मों की लंबी सूचि पेश की जा सकती है। जो भारतीय समाज को कहीं से प्रतिबिंबित नहीं करती है।
ये वे फिल्में है जो भूमंडलीकृत होते बाजार को ध्यान में रख कर बनाई गयी है आज फिल्मकरों का ध्यान हिन्दुस्तान के बाजार से ज्यादा विश्व बाजार से है इसलिए इन फिल्मों को इस तरह से बनाया जाता है ताकि वह भारत से बहार रह रहे भारतीय मूल के दर्शकों को आकृष्ट कर सके। आज हिन्दी फिल्में देश छोड़ चुके लोगों के लिए बनने लगी है। शायद यही कराण है कि हिन्दी सिनेमा ने भारत देश को ही छोड़ दिया है।
आज का यह एक ऐसा दौर है जब कला और लोकप्रिय सिनेमा के बीच की खाई और ज्यादा बढती हुई नजर आ रही है।
इस शोध को करने के बाद हम जिस पहले निष्कर्ष पर पहूंचे वो यह है कि आज जो फिल्में बनाई जा रही है और दिखाई जा रही है उस सबका उद्देश्य पैसा कमना होता है। पर इसमें थोड़ा सा पेंच है आज जो फिल्में दिखाई जा रही है उसका उद्देश्य मात्र सिर्फ पैसा बनाना रह गया है और ऐसा इसलिए कह रह रहा हूं कि वर्तमान में बॉलीवुड में हर साल लगभग 8000 से 9000 फिल्में बनतीं हैं और इसमे से 95 प्रतिश्त से ज्यादा फिल्म तो लोगों तक पहूंच ही नहीं पाती है मतलब आज जो फिल्में चलती है और जिसे आम आदमी देखता है उसे बनाने वाला जिवन का या कला का जानकार कोई पारखी निर्देश्क नहीं बल्कि बाजार को समझने वाले निर्माता के द्वारा बनाई जा रही है
लेकिन सवाल उठता है कि पहले जो फिल्में बनती थी वह भी तो पैसा कमाती थी बावजूद इसके फिल्में समाजीक सरोकार वाली होती थी। लेकिन आज पैसा कमाने के लिए समाजीक सरोकार वाली फिल्में नहीं बनाई जाती है क्यों ?
इस शोध के द्वारा जो दूसरा सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकला वह यह है कि आज का फिल्म निर्माता और निर्देश्क उस पृष्ठभूमि से नहीं आयें है जिस पृष्ठभूमि से पहले के निर्माता निर्देश्क आते थे। बड़े शहरों में पले- बढ़े,अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े लिखे आज के निर्माता-निर्देश्कों की ऐसी फौज खड़ी है जिन्होनें कभी भारत के ग्रामिण इलाकों को देखा ही नहीं। भारत की जो एक समाजीक संरचना है उसमें ढ़ल कर कभी जिया ही नहीं। हमारे जात-पात के मुद्दे, ऊंच—निच के मुद्दे, धर्म और धार्मिक संस्कार के मुद्दे आदि-आदि आज के नये नवेले फिल्म निर्माताओं और निर्देश्कों को बेकार लगते है उन्हे लगता है कि अगर उनका इस तरह के मामलों से वास्ता नहीं है तो भारत के सवा सौ करोड़ लोगों का कैसे हो सकता है। शायद इसिलिए इस तरह की मुद्दें पर आज के निर्माता-निर्देशक ने अपना पैसा और समय बर्बाद करना छोड़ दिया है।
भारतीय सिनेमा उद्दोग ने जिसको पकड़ कर रखा है उसमे शहर और शहर मे रहने वाले अमीर और खर्चीले दर्शक हैं और यही मेरे शोध का तिसरा निष्कर्ष है। आज अगर ये कहा जाता है कि भारतीय हिन्दी सिनेमा बिल्कुल ही समाजीक विषय पर फिल्में नहीं बनाती है तो कुछ शहरी लोग इससे सहमत नहीं हो पाते है और सच में होना भी नहीं चाहिए क्योंकि “मेट्रो” और “फैशन” जैसी फिल्में आज बन रही है जो शहरी जीवन शैली को बखुबी दिखाती है
असल में फिल्मों ने आज अपने आपको पूर्ण रुप से शहरी विषय के अन्दर समेट लिया है । जिस शहर के बारे में दिखाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता पर यहां कुछ भी देखने वालों की एक भीड़ होती है क्योंकि इनके पास पैसा बहुत होता है। पहले की फिल्में पुरे देश में चलती थी उसके बाद उसे हिट और फ्लोप करार दी जाती है परंतु आज की फिल्में तो पीवीआर बहुपर्दे वाली सिनेमा हॉल के खिड़की पर ही हिट और फ्लॉप करार दी जाती है।
समझ से परे समझदार लोगों की भीड़ सिनेमा के बारे अपने विचार व्यक्त करती है और फिर हम जैसे नासमझ को भी पता लग जाता है कि फिल्मी अचार कैसा होता है। हर सप्ताह अखबारों में फिल्म की समिक्षा छापी जाती है, टीवी पर फिल्मी समिक्षा के कार्यक्रम दिखाए जाते है जो फिल्मों को रेटिंग देते है। पिछले कई सालो से हम देखते आ रहें है और अगर अपवाद को छोड़ दे तो इस तरह की रेटींग में अमुमन सभी फिल्मों को तीन से साढ़े तीन स्टार ही समिक्षको द्वारा दिया जाता है कि जबकि वह फिल्म सुपर-डूपर हिट होती है। कारण पूछने पर एक समिक्षक ने व्यंग करते हुए कहा कि जिस फिल्म को सबसे कम सितारे मिलते है वही आज-कल सबसे ज्यादा देखी जाती है। एक विद्वान ने तो यहां तक कह दिया कि फिल्मों की इस रेटिंग-वेटिंग के चक्कर में मत पडिए। बस साल में कोई एक फिल्म उठाकर देख लीजिए तो आपको पता लग जाएगा कि उस साल की सारी फिल्में कैसी है।
उपरोक्त तथ्य के आधार पर हमलोगों ने एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण किया जिसके द्वारा दर्शकों को यह दिखाने और समझाने का प्रयास किया गया है कि पहले और आज के फिल्मों में क्या अंतर है और आज जिस तरह के फिल्में दर्शक देख पा रहें हैं। वह भारतिय सिनेमा नहीं है बल्कि मूम्बईया मनोरंजन मात्र है जिसमें हॉलीवुड का तड़का लगा रहता है।
शोधार्थी, इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रोडक्शन एंण्ड मैनेजमेंट
पत्रकारिता एंव नवीन मीडिया अध्ययन विधापीठ
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविधालय
मैदान गढ़ी, नई दिल्ली-110068