गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

मेलों का मेला पुष्कर मेला

राजस्थान में कई पर्यटन स्थल हैं जिनमें से पुष्कर एक है। पुष्कर झील अजमेर नगर से ग्यारह किमी उत्तर में स्थित है। पुष्कर को तीर्थों का मुख माना जाता है। जिस प्रकार प्रयाग को तीर्थराज कहा जाता है, उसी प्रकार से इस तीर्थ को पुष्करराज कहा जाता है। मान्यता के अनुसार पुष्कर की गणना पंचतीर्थों व पंच सरोवरों में की जाती है। यहां का मुख्य मन्दिर ब्रह्माजी का है, जो कि पुष्कर सरोवर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। मन्दिर में चतुर्मुख ब्रह्माजी की दाहिनी ओर सावित्री और बायीं ओर गायत्री का मन्दिर है। पास में ही एक और सनकादि की मूर्तियां हैं, तो एक छोटे से मन्दिर में नारद जी की मूर्ति। एक मन्दिर में हाथी पर बैठे कुबेर तथा नारद की मूर्तियां हैं। पुष्कर में दुनिया के सबसे बड़े ऊंट मेले के रूप में जाना जाता है। यह अंतरराष्ट्रीय मेला सैलानियों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र होता है। हर साल संपन्न होने वाला यह मेला कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी से पूर्णिमा तक चलता है, जिसमें देश विदेश से भारी संख्या में सैलानी पहुंचते हैं। राजस्थान पर्यटन विभाग के अनुसार राज्य में आने वाले प्रति दस पर्यटकों में से 8 पुष्कर आए बगैर नहीं जाते। पर्यटकों की सर्वाधिक आवाजाही पुष्कर मेले में होती है। रेतीले धोरों में पशुपालकों की दिनचर्या, राजस्थान की पारंपरिक लोक संस्कृति, धार्मिक क्रिया-कलाप देखने और उनसे जुड़ने में पर्यटकों की विशेष रुचि होती है। मेले के बाद पुष्कर में पर्यटकों की संख्या में कमी आ जाती है। साल भर सामान्य तरीके से ही पर्यटक पहुंचते हैं। मेलों के रंग राजस्थान में देखते ही बनते हैं। ये मेले मरुस्थल के गांवों के कठोर जीवन में एक नवीन उत्साह भर देते हैं। लोग रंग–बिरंगे परिधानों में सज–धजकर जगह–जगह पर नृत्य गादि में भाग लेते हैं।
पुष्कर मेला थार मरुस्थल का एक लोकप्रिय व रंगों से भरा मेला है। .वैसे तो इस मेले का खास आकर्षण भारी संख्या में पशु ही होता है। फिर भी पुष्कर में भ्रमण के लिए यहां स्थित 400 मंदिर हैं तथा जगह -जगह स्थित 52 घाट पुष्कर के खास आकर्षण हैं। बदलते दौर के चलते यहां देश विदेश से आये पर्यटकों के बीच क्रिकेट मैच, यहां के पारंपरिक नृत्य, गीत संगीत, रंगोली, यहां का काठ पुतली नृत्य आदि भी इस मेले के विशेष आकर्षणों में शामिल हैं। इस मेले में ऊंट अथवा अन्य घरेलू जानवरों की क्रय-बिक्री के लिए लाए जाते हैं। इसे ऊंटों का मेला भी कहा जाता है। इस मेले में पशु पालकों को अच्छी नस्ल के पशु आसानी से मिल जाते हैं। मेले के समय पुष्कर में कई संस्कृतियों का मिलन देखने को मिलता है। एक तरफ तो मेला देखने के लिए विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं, तो दूसरी तरफ राजस्थान व आसपास के तमाम इलाकों से आदिवासी और ग्रामीण लोग अपने-अपने पशुओं के साथ मेले में शरीक होने आते हैं। मेला रेत के विशाल मैदान में लगाया जाता है। ढेर सारी कतार की कतार दुकानें, खाने-पीने के स्टाल, सर्कस, झूले और न जाने क्या-क्या। ऊंट मेला रेगिस्तान से नजदीकी को बताता है। इसलिए ऊंट तो हर तरफ देखने को मिलते ही हैं।
देशी -विदेशी सैलानियों को यह मेला इसलिए लुभाता है, क्योंकि यहां उम्दा जानवरों का प्रदर्शन तो होता ही है, राजस्थान की कला-संस्कृति की अनूठी झलक भी मिलती है। लोक संगीत और लोक धुनों की मिठास भी पर्यटकों को काफी लुभाती है। वैसे यहां सैलानियों के लिए मटका फोड़, लंबी मूंछ, दुलहन प्रतियोगिता जैसे कई कार्यक्रम भी मेला आयोजकों की तरफ से किए जाते हैं जो आकर्षण के केंद्र होते हैं। पुष्कर में कई संस्कृतियों का मिलन देखने को मिलता है। एक तरफ तो विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं, तो दूसरी तरफ राजस्थान व आसपास के तमाम इलाकों से आदिवासी और ग्रामीण लोग अपने-अपने पशुओं के साथ मेले में शरीक होने आते हैं

यह दैनिक 'नया इंडिया' में प्रकाशित

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

क्रिसमस त्योहार के मायने


मौसम की सर्द हवाएँ क्रिसमस को दस्तक देते हुए नववर्ष का आगमन का संदेश 'हैलो' से देती हैं और लाल हरी छटा, प्रकृति में हर तरफ़ नज़र आने लगती है। सदाबहार झाड़ियाँ तथा सितारों से लदें क्रिसमस वृक्ष को सदियों से याद किया जाता रहा है। हांलाकि ट्री नाम से जाना जाने वाला यह वृक्ष ईसा युग से भी पूर्व पवित्र माना जाता था। इसका मूल आधार यह रहा है, कि 'फर ' वृक्ष की तरह सदाबहार वृक्ष बर्फ़ीली सर्दियों में भी हरे भरे रहते हैं। इसी धारणा से रोमनवासी सूर्य भगवान के सम्मान में मनाए जाने वाले सैटर्नेलिया पर्व में चीड़ के वृक्षों को सजाते थे।

यूरोप के अन्य भागों में हँसी खुशी के विभिन्न अवसरों पर भी वृक्षों की सजाने की प्राचीन परम्परा थी। इंग्लैंड़ और फ्रांस के लोग ओक के वृक्षों को फसलों के देवता के सम्मान में फूलों तथा मोमबतियों से सजाते थे। इस दिन लोग अपने घरों को रंग-बिरंगे फूलों, सदाबहार पेड़-पौधों तथा सुंदर काग़ज़ के कंदीलों से सजाते हैं। क्रिसमस के दिन उपहारों का लेन देन, प्रार्थना गीत, अवकाश की पार्टी तथा चर्च के जुलूस- सभी हमें बहुत पीछे ले जाते हैं। यह त्योहार सौहार्द, आह्लाद तथा स्नेह का संदेश देता है। विशेष रूप से यह आगमन के काल से जुड़ा हुआ है। यह पुरे मौज मस्ती के साथ मनाया जाता है दुनिया भर के अधिकतर देशों में यह 25 दिसम्बर को मनाया जाता है। क्रिसमस की पूर्व संध्या यानि 24 दिसंबर को ही यूरोप तथा कुछ अन्य देशों में इससे जुड़े समारोह शुरु हो जाते हैं। यहाँ क्रिसमस अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। फ्रांस में यह मान्यता प्रचलित है कि पेयर फुटार्ड उन सभी बच्चों का ध्यान रखते हैं, जो अच्छे काम करते हैं और 'पेयर नोएल' के साथ मिलकर वे उन बच्चों को उपहार देते हैं। इटली में सांता को 'ला बेफाना' के नाम से जाना जाता है, जो बच्चों को सुंदर उपहार देते हैं। यहाँ ६ जनवरी को भी लोग एक-दूसरे को उपहार देते हैं, क्योंकि उनकी मान्यता के अनुसार इसी दिन 'तीन बुद्धिमान पुरुष' बालक जीजस के पास पहुँचे थे। इसके साथ ही आइसलैंड में यह दिन बेहद अनोखे ढंग से मनाया जाता है। वहाँ एक के बजाय १३ सांता क्लाज होते हैं और उन्हें एक पौराणिक राक्षस 'ग्रिला' का वंशज माना जाता है। उनका आगमन १२ दिसंबर से शुरू होता है और यह क्रिसमस वाले दिन तक जारी रहता है। ये सभी सांता विनोदी स्वभाव के होते हैं। इसके विपरीत डेनमार्क में 'जुलेमांडेन' (सांता) बर्फ़ पर चलनेवाली गाड़ी- स्ले पर सवार होकर आता है। यह गाड़ी उपहारों से लदी होती है और इसे रेंडियर खींच रहे होते हैं। नॉर्वे के गाँवों में कई सप्ताह पहले ही क्रिसमस की तैयारी शुरू हो जाती है। वे इस अवसर पर एक विशेष प्रकार की शराब तथा लॉग केक (लकड़ी के लठ्ठे के आकार का केक) घर पर ही बनाते हैं। त्यौहार से दो दिन पहले माता-पिता अपने बच्चों से छिपकर जंगल से देवदार का पेड़ काटकर लाते हैं और उसे विशेष रूप से सजाते हैं। इस पेड़ के नीचे बच्चों के लिए उपहार भी रखे जाते हैं। क्रिसमस के दिन जब बच्चे सोकर उठते हैं तो क्रिसमस ट्री तथा अपने उपहार देखकर उन्हें एक सुखद आश्चर्य होता है। डेनमार्क के बच्चे परियों को 'जूल निसे' के नाम से जानते हैं और उनका विश्वास है कि ये परियाँ उनके घर के टांड पर रहती हैं।फिनलैंड के निवासियों के अनुसार सांता उत्तरी ध्रुव में 'कोरवातुनतुरी' नामक स्थान पर रहता है। दुनिया भर के बच्चे उसे इसी पते पर पत्र लिख कर उसके समक्ष अपनी अजीबोग़रीब माँगे पेश करते हैं। उसके निवास स्थान के पास ही पर्यटकों के लिए क्रिसमस लैंड नामक एक भव्य थीम पार्क बन गया है। यहाँ के निवासी क्रिसमस के एक दिन पहले सुबह को चावल की खीर खाते हैं तथा आलू बुखारे का रस पीते हैं। इसके बाद वे अपने घरों में क्रिसमस ट्री सजाते हैं। दोपहर को वहाँ रेडियो पर क्रिसमस के विशेष शांति-पाठ का प्रसारण होता है।
इंग्लैंड में इस त्यौहार की तैयारियाँ नवंबर के अंत में ही शुरू हो जाती हैं। बच्चे बड़ी बेताबी से क्रिसमस का इंतज़ार करते हैं और क्रिसमस का पेड़ सजाने में अपने माता-पिता की सहायता करते हैं। २४ दिसंबर की रात को वे पलंग के नीचे अपना मोजा अथवा तकिये का गिलाफ़ रख देते हैं, ताकि 'फादर क्रिसमस' आधी रात को आकर उन्हें विभिन्न उपहारों से भर दें। जब वे अगले दिन सोकर उठते हैं तो उन्हें अपने पैर के अंगूठे के पास एक सेब तथा ऐड़ी के पास एक संतरा रखा हुआ मिलता है। इस अवसर पर बच्चे पटाखे भी जलाते हैं। यहाँ क्रिसमस के अगले दिन 'बॉक्सिंग डे' भी मनाया जाता है, जो सेंट स्टीफेन को समर्पित होता है। कहते हैं कि सेंट, स्टीफेन घोड़ों को स्वस्थ रखते हैं। यहाँ बाक्सिंग का मतलब घूसेबाजी से नहीं है, बल्कि उन 'बाक्स' (डिब्बों) से है, जो गिरजाघरों में क्रिसमस के दौरान दान एकत्र करने के लिए रखे जाते थे। २६ दिसंबर को इन दानपेटियों में एकत्र धन गरीबों में बाँट दिया जाता था। रूस में इन दिनों भयंकर बर्फ़ पड़ी रही होती है, फिर भी लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं आती। वे २३ दिसंबर से ५ जनवरी तक इस त्यौहार को मनाते हैं। उत्सवों के नगर सिंगापुर में भी इस त्यौहार का विशेष महत्व है। यहाँ महीनों पहले से ही इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं और सभी बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल में सजावट तथा रोशनी के मामले में परस्पर होड़ लग जाती है। अगर इन दिनों आप कभी सिंगापुर आएँ तो चांगी हवाई अडडे पर उतरते ही वहाँ सजे क्रिसमस ट्री देखकर आपको यह अहसास हो जाएगा कि यहाँ क्रिसमस की बहार शुरू हो गई है। हर साल यहाँ क्रिसमस के लिए कोई नई थीम ली जाती है, मसलन पिछले साल की थीम थी 'बर्फ़ीली क्रिसमस' जिसकी जगह से पूरे सिंगापुर में इस दौरान चारों तरफ़ सजावट तथा रोशनी में बर्फ़ का ही अहसास होता था। सिंगापुर की ही तरह मकाऊ तथा हांगकांग में भी क्रिसमस की अनोखी सजावट देखी जा सकती है ,इस पर हर साल लाखों डालर खर्च किए जाते हैं। अमरीका में सांता क्लाज के दो घर हैं - एक कनेक्टीकट स्थित टोरिंगटन में तथा दूसरा न्यूयार्क स्थित विलमिंगटन में। टोरिंगटन में सांता क्लाज अपने 'क्रिसमस गाँव' में आनेवाले बच्चों को अपनी परियों के साथ मिलकर उपहार देता है। इस अवसर पर इस गाँव को स्वर्ग के किसी कक्ष की तरह सजाया जाता है। व्हाइटफेस पर्वत के निकट विलिंगटन में सांता का स्थायी घर है। इस गाँव में एक गिरजाघर तथा एक डाकघर है। यहाँ एक लुहार भी रहता है। हर साल एक लाख से अधिक लोग इस गाँव के दर्शन करने आते हैं।
यह दैनिक 'नया इंडिया' में प्रकाशित

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

पुरानी यादें

समय से कुछ लम्हे चुरा लेती हैं यादे
दिल मे अपना घर बसा लेती है यादे
याद बहुत याद आती है यादे
वैसे तो यादों के सहारे कट जाती है ज़िंदगी
पर कभी जीना मुश्किल बहुत मुश्किल कर देती है यादे
अच्छी हों तो बहुत लुभाती है
पर बुरी हों तो बहुत रुलाती हैं यादें
ये हथेली भरी यादें
बहुत याद आती हैं यादे
कभी तो पलके भिगो जाती हैं
कभी मुस्कान बन जाती है यादें
वो समय जो पीछे बीत गया
पल जो हाथों से छूट गया
उसी की धरोहर बन जाती हैं यादें
इसीलिए याद बहुत याद आती है यादें
किसी के लिए गूँज शहनाई की
तो किसी के लिया किलकारी हैं यादें
किसी के लिए मिलन की.
तो कंही जुदाई हैं यादें
शायद इसिलिया बहुत तड़पाती हैं यादें
कुछ खट्टी तो कुछ मीठी है यादें
खरी खोटी जैसी भी हों
हैं तो आपनी ही यादें
वख्त बेवख्त कभी भी चली आती हैं यादें
याद बहुत याद ,बहुत ही याद आती हैं यादें

यह रचना मेरे द्वारा नहीं लिखा गया है

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

जयपुर के झरोखे से.........

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