मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

चुनाव में पर्यावरण बन पाएगा विकास का मुद्दा ?

पाँच राज्यों में हो रहे चुनावों में अलग-अलग राजनैतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में अपने कार्यक्रमों की घोषणा कर दी है। हमेशा की तरह वोटरों को सपने दिखाये जा रहे हैं। कोई विजन की बात कर रहा है तो कोई मन्दिर बनाने की, दिखाने को नारे, झण्डे और प्रतीक भले ही अलग-अलग हैं पर सब की कार्यशैली लगभग एक सी है। विकास के मुद्दे चुनाव प्रचार में छाए हुए हैं, शुद्ध पर्यावरण की बात कोई नहीं कर रहा है कहावत भी है 'जैसा खाए अन्न, वैसा होये मन' जैसा पीये पानी, वैसी बोले वाणी। ऐसे में आज प्रदूषित वातावरण में लोगों की बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है पूरी दुनिया आज पर्यावरण के संकट से जूझ रही है और उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती है हरित या साफ-सुथरी तकनीक का विकास और उसका ज्यादा से ज्यादा प्रचलन। इस दिशा में भारत जैसे विकासशील देश भी अपनी जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ सकते

दरअसल
, आज हमारी समूची राजनीति ही लोकविमुख और पथभ्रष्ट हो चुकी है। यही वजह है कि लोक से जुड़े पर्यावरण जैसे अहम मसलों को अकादमिक या बौद्धिक विमर्श का विषय मान लिया गया है
और न ही ऐसे मसलों को लेकर कोई राजनीतिक दल जनांदोलन छेड़ते हैं। विभिन्न राज्यों में हो रहे चुनाव को लेकर राजनितिक पार्टियाँ अपने घोषणा पत्र में वोटरों को लुभाने के लिए कई तरह के वादें कर रही है कोई २४ घंटे बिजली देने , तो कोई रोजगार के लिए कम्पनियों को लाने, आधुनिक शहर बनाने, पेरिस और लन्दन की तर्ज पर सड़के बनाने की बात कर रही है और इन सारी सुविधाओं के लिए जंगल से लेकर जंगली जानवर और पारम्परिक जल सोत्र सबको नष्ट करते जा रहें है.यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु और ये दूषित हवा हमारे फेफड़ों में जाती है जिसके कारण दमा जैसी गंभीर सांस की बीमारी होती है कुछ ऐसे हीं श्वास के रोग और भी हैं जिनका इलाज़ संभव नहीं हैआज सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने के जरूरी उपाय पर किसी राजनितिक पार्टी के पास कोई रणनीति नहीं है परिवहन व्यवस्था भ्रष्टाचार, अक्षमता, विलम्ब और अविश्वसनीयता की शिकार है। इसी कारण शहरों में बड़ी संख्या में लोग निजी वाहनों का उपयोग करते हैं इन इलाकों में वाहनों से होने वाले प्रदुषण का स्तर भी हर समय काफी उंचा होता है

आज इतने सालों के बाद भी हमारे नेता साफ़ पानी तक उपलब्ध नहीं करा पाए देश में 75 प्रतिशत लोग अशुद्ध जल पीने को मजबूर है जो देश में व्याप्त अधिकतर महामारी की जड़ है छुआछूत की 20 प्रतिशत बिमारी दूषित पानी से हो रही है। 11 करोड़ घरों में एवं 30 प्रतिशत विद्यालयों में शौचालय की व्यवस्था नहीं है। कानूनी प्रतिबंध के बावजूद 1 लाख से अधिक लोग आज भी मैला उठाने का कार्य कर रहे हैं। लेकिन इसे दूर करने के लिए इन नेताओं के पास कोई रणनीति नहीं है और यह चुनाव का मुद्दा भी नहीं बनता ऐसे समय में जब हम पानी को लेकर युद्ध की संभावना जता रहों हो वहां पर यह मुद्दा विकास के साथ जुड़कर चुनावी चर्चा में स्थान नही पाता। ऐसे में हम खतरे को देखकर आंख बंद करने की गलती कर रहें है. पर्यावरण हमारे भविष्य का आधार है और इसकी अनदेखी के खतरनाक परिणाम सामने आ सकते है

ऐसे समय में जब हम पानी को लेकर युद्ध की संभावना जता रहों हो वहां पर यह मुद्दा विकास के साथ जुड़कर चुनावी चर्चा में स्थान नही पाता। ऐसे में हम खतरे को देखकर आंख बंद करने की गलती कर रहें है.
पर्यावरण हमारे भविष्य का आधार है और इसकी अनदेखी के खतरनाक परिणाम सामने आ सकते है। ऐसे समय में जब हम पानी को लेकर युद्ध की संभावना जाता रहे हो वहां पर यह मुद्दा विकास के साथ जुड़कर चुनावी चर्चा में स्थान नहीं पता.ऐसे में हम खतरे को देखकर आँख बंद करने की गलती कर रहे हैं. पर्यावरण हमारे भविष्य का आधार है और इसके अनदेखी के खतरनाक परिणाम सामने आ सकते हैं
यह दैनिक 'नया इंडिया' में प्रकाशित...

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

विलुप्त होती यादें और पक्षी: बचपन से पर्यावरणीय चिंता तक

मेरा बचपन गाँव में बीता है। मैं खेतों में घंटों घुटनों तक गीली मिट्टी में घूमने का मज़ा लेता था, किसानों के साथ उनकी मेहनत को करीब से देखता था और डीजल इंजन के धक्-धक् करते संगीत के बीच बहते पानी की धार में नहाने का आनंद उठाता था। गर्मियों में पके आमों के लालच में एक बगीचे से दूसरे बगीचे घूमना, छत पर बैठकर धूप सेंकते हुए खाना खाना, और कभी-कभी शरारती कौए द्वारा रोटी चुराए जाने की घटनाएँ—यह सब याद करके आज भी मन रोमांचित हो उठता है।

लेकिन इन यादों के साथ एक गहरी कसक भी जुड़ी हुई है। जब भी वर्षों बाद अपने गाँव लौटता हूँ, तो एक कमी साफ़ दिखाई देती है—वो नन्हीं चहचहाती चिड़ियाँ, जो कभी हमारे आंगन, खिड़कियों और पेड़ों पर फुदका करती थीं, अब कहीं नजर नहीं आतीं। गौरैया, तोता, मैना और कौवे जो बचपन की दुनिया का अहम हिस्सा हुआ करते थे, अब तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। इनकी अनुपस्थिति न केवल मेरे बचपन की यादों को फीका कर रही है, बल्कि पर्यावरण के लिए भी एक बड़ा खतरा बन रही है।

गौरैया का गायब होता संसार

कभी घरों और चौबारों में बसेरा करने वाली गौरैया अब मुश्किल से ही दिखाई देती है। आधुनिक मकानों में आंगन और खुले स्थानों की कमी ने उसके प्राकृतिक आवास को छीन लिया है। शहरीकरण के कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते गाँव-शहरों ने उसके लिए घोंसला बनाना कठिन कर दिया है। इसके अलावा, मोबाइल टावरों से निकलने वाला रेडिएशन भी गौरैया की घटती संख्या के पीछे एक बड़ा कारण माना जाता है।

गिद्धों की घटती संख्या: पर्यावरणीय संकट

गौरैया ही नहीं, बल्कि गिद्धों की संख्या में भी चिंताजनक गिरावट आई है। गिद्ध, जो प्राकृतिक सफाईकर्मी होते हैं और पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, अब संकटग्रस्त प्रजातियों में गिने जाने लगे हैं। पहले ये बड़े पैमाने पर खेतों, जंगलों और गाँवों के आस-पास देखे जाते थे, लेकिन अब इनकी संख्या कुछ हजार तक सिमट गई है।

एक समय था जब देश में करोड़ों की संख्या में गिद्ध पाए जाते थे, लेकिन अब स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि सरकार को इनके संरक्षण के लिए विशेष केंद्र स्थापित करने पड़े हैं। पिंजौर (हरियाणा), राजाभातखावा (पश्चिम बंगाल) और रानी (असम) में गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र चलाए जा रहे हैं, लेकिन यह प्रयास अभी भी नाकाफी साबित हो रहे हैं।

क्या कर सकते हैं हम?

यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा है कि क्या हम इन पक्षियों को बचाने के लिए कुछ कर सकते हैं? जवाब है—हाँ। हम निम्नलिखित प्रयास कर सकते हैं:

  1. घरों में कृत्रिम घोंसले बनाना: गौरैया के लिए छोटे-छोटे लकड़ी के घोंसले अपने घरों, बालकनी या छतों पर लगाना एक अच्छा प्रयास हो सकता है।

  2. पौधारोपण को बढ़ावा देना: अधिक से अधिक पेड़ लगाकर हम पक्षियों के लिए प्राकृतिक आवास उपलब्ध करा सकते हैं।

  3. खुले स्थानों में पक्षियों के लिए दाना-पानी रखना: गर्मी के दिनों में छतों और बगीचों में पानी के बर्तन और अनाज रखना पक्षियों की संख्या बढ़ाने में मदद कर सकता है।

  4. कीटनाशकों और जहरीले रसायनों का कम उपयोग: खेतों और बाग-बगीचों में रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से पक्षियों के भोजन के स्रोत नष्ट हो रहे हैं। जैविक खेती को अपनाना एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

  5. गिद्धों के संरक्षण कार्यक्रमों का समर्थन करना: गिद्धों को बचाने के लिए हमें सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों के बारे में जागरूकता बढ़ानी होगी और इनके संरक्षण के लिए आवाज उठानी होगी।

निष्कर्ष

हमारे बचपन की यादों के साथ ये नन्हे परिंदे भी धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। यदि हमने अभी कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियों को सिर्फ किताबों और तस्वीरों में ही गौरैया, गिद्ध और अन्य पक्षियों के बारे में जानने का मौका मिलेगा। हमें अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए प्रकृति के इस अनमोल खजाने को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करना होगा।

क्योंकि जब ये परिंदे उड़ान भरते हैं, तो हमारी यादें भी उनके साथ पंख फैलाती हैं।