बुधवार, 1 फ़रवरी 2012
संकट में भारतीय पक्षी
मेरा बचपन गॉव में बिता है। मैं जुताई के खेतों में घंटों घुटनों तक गीली मिटटी में किसानो के साथ रहने का मजा भी उठाया है और डीजल इंजन के धक्-धक् करते सुरमय संगीत के बीच न कम होने वाली पानी की मोटी धार के बीच नहाने का मजा भी उठाया है। गर्मीं के दिनों में पक्के आम के लालच में एक बगीचे से दुसरे बगीचे चक्कर लगाना यह सोच कर आज भी मेरा मन रोमांच से भर उठता है। दो मंजिले छत पर धुप में बैठ कर खाना खाने का मजा ही कुछ और था, कई बार तो खाने की प्लेट से कौए रोटी लेकर भाग जाते और थोड़ी ही दूरी पर इठलाती और चिढाती हुई खाती. एक लम्बे अरसे के बाद जब घर आया हूँ, तो वो चहकती-फुदकती हर जगह दिखाई देने वाली, हमारे घर आगन में फुदकती प्यारी सी और कोमल सी चिड़ियाँ कहीं नहीं दिख रही है। शैशवावस्था से इनको आकाश में उड़ते देखने के कारण जो प्रेरणा मिलती रही है, उसी का परिणाम है कि हर किसी को उड़ने की इच्छा होती है। कौए, गौरैए, मैना, तोता जैसे पक्षी का पारिवारिक माहौल में घुलने-मिलने के बाद इनकी संख्या का कम होना अखरने लगा है। वर्षों पहले तो इन पक्षियों का झुण्ड हमारे घरों ,सार्वजनिक स्थ्लों, चौक, चबूतरों, खिडकियों यहाँ तक की कमरों के अन्दर भी देखे जा सकते थे। उसका फुदकना और चहचहाना हर किसी का मन मोह लेता है। हमारे बचपन की बहुत सी यादें इन नन्ही सी चिड़ियों के अठखेलियों से जुडी हुई है। लेकिन आज इसकी संख्या बहुत तेजी से कम होते जा रही है और इसके विलुप्त होने का खतरा मडरा रहा है। शहरीकरण से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है और पक्षियों के घोंसलों के लिए पेड़ भी नहीं बच रहे हैं। इसके अलावा मकानों में बिजली, केबल आदि के तारों का इस तरह जाल बिछा है कि गौरैया जैसे पक्षियों के लिए उड़ना मुश्किल होता जा रहा है। आधुनिक युग में रहन-सहन और वातावरण में आ रहे बदलावों के कारण गौरैया पर कई ख़तरे मंडरा रहे हैं। सबसे प्रमुख ख़तरा उसके आवास स्थलों का उजड़ना है। आज हमारे घरों में आंगन होते ही कहां हैं, फिर बेचारी गौरैया घोंसला बनाए कहां? आधुनिक युग में पक्के मकानों की बढ़ती संख्या एवं लुप्त होते बाग़-बग़ीचे भी उसके आवास स्थल को छीन रहे हैं। इसके अलावा भोजन की कमी भी गौरैया के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती है। भारत के आलावा और कई देशों में पायी जाने वाली इन पक्षियों की संख्या कम होती जा रही है। इसके आलावा भी अन्य भारतीय पक्षी जैसे गिद्ध जो पर्यावरण का सबसे बड़ा हितैषी और कुदरती सफाईकर्मी के रूप में जाना जाता है जो धरती पर पड़े लावारिश पशु-पक्षियों के शवों को खाकर अपना पेट भरते हैं। इतना ही नहीं, ये गिद्ध शाकाहारी भोजन का कचरा भी मज़े से खा लेते हैं। लेकिन अब गिद्ध प्रजाति संकट में हैं। शहरों में तथा बड़ी आबादी वाले गांव में तो गिद्ध के दर्शन भी दुर्लभ हो चुके हैं। इस समय देश में गिद्धों की नौ प्रजातियों की जानकारी है। जिनमें से अधिकांश उत्तराखंड में मिलती है। हिमालयन ग्रिफन, व्हाईट वेक्ड, सिलेन्डर बिल्ड, रैड हैडेड, इजिप्सियन, सिनेरियस, ला मरगियर और लौंग बिल्ड प्रमुख है। इनमें से लौंग बिल्ड और सिलेन्डर बिल्ड प्रजाति समाप्त होने के कगार पर है। एक अनुमान के मुताबिक अस्सी के दशक में देश में आठ करोड गिद्व थे। लेकिन अब इनकी सख्या बमुशिकल कुछ हजार ही रह गई है। विलुप्त हो रहे इन गिद्धों को बचाने के लिए सरकार देश में तीन गिद्ध संरक्षण प्रजनन केन्द्र चला रही है। जो पिंजौर (हरियाणा), राजाभातखावा (पश्चिम बंगाल) व रानी (असम) में स्थापित हैं। मगर ये सभी योजनाएं गिद्धों को बचाने में नाकाफी साबित हो रही हैं। जंगल के इस सफाईकर्मी की घटती संख्या से वन्य जीवों समेत मानव की जान पर खतरा मंडराने लगा है। जिससे वाइल्ड लाइफ प्रेमी काफी चिंतित हैं। देश के शहरी व ग्रामीण इलाकों में अगर गिद्धों की चहल-पहल देखनी है तो इनके संरक्षण के लिए हमें आगे आना होगा। नही तो मानव का सच्चा हितैषी विलुप्त हो जाएगा और हमें तरह-तरह की भयंकर बीमारियों से दो चार होना पड़ेगा। जिसके लिए हम खुद जिम्मेदार होंगें।
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