मंगलवार, 10 अगस्त 2010

अमीर बढ़ रहे हैं या अमीरी!


एक अमीर आदमी का बेटा बिगड़ रहा था। उसे पटरी पर लाने के लिए रईस पिता ने अपने एक मुलाजिम से कहा कि इसे अपने गांव ले जाओ, वहां की दुश्वारियां देखेगा तो दिमाग दुरुस्त हो जाएगा। बेटा अपने ही नौकर के गांव में एक महीने रहकर लौटा तो रईस पिता ने पूछा कि तुम्हारा अनुभव कैसा रहा?बेटे का जवाब था कि हमारे पास एक कुत्ता है, उनके पास दो हैं। हम खिड़की बंद करके सोते हैं और बिजली चले जाने पर जब एसी बंद हो जाता है तो उसे खोलने से डरते हैं। वहां हर समय ठंडी हवा आती है। यहां हम नहाने के लिए स्विमिंग पूल बनाते हैं, उनके पास झरने और नदियां हैं। हमें घूमने या दौड़ने के लिए पार्क की जरूरत पड़ती है, जबकि वहां कुटिया से बाहर कदम रखते ही प्रकृति अपनी गोद में ले लेती है। शहर में हंसने के लिए टीवी या सिनेमा का सहारा लेना पड़ता है, वहां लोग यूं ही ठहाके लगाते रहते हैं। यह किस्सा बयान कर देने के बाद बेटे ने पूछा कि अब आप ही बताइए कि कौन गरीब है?
पंचतंत्र की कहानियों की तर्ज पर गढ़ी गई यह कारपोरेटी कथा अमीरों को भले ही कोई सीख देती हो पर गरीबों के बारे में सिर्फ एक फंतासी पेश करती है। अफसोस, इस समय भारत में जिस तेजी से अमीर बढ़ रहे हैं, उससे कई गुना गति से गरीब और गरीबी बढ़ रही है।
इससे भी बड़ा खेदजनक तथ्य तो यह है कि हिन्दुस्तान में गरीब और गरीबी के आंकड़े एक-दूसरे को झुठलाते हैं। आंकड़ों की यह बाजीगरी हुक्मरानों के हित साधती है, क्योंकि शासकों की मेहरबानी पर टिके संयुक्त राष्ट्र संघ या भारी भरकम बजट वाली अकादमियों में बैठे लोग निर्धनता मापने के मानदंड गढ़ते हैं। इनमें विरोधाभास होना लाजिमी है।
ऑक्सफोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट ने संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से इधर जो बहुआयामी निर्धनता सूचकांक तैयार किया है, उसको लेकर बुद्धिजीवियों में बहस बड़ी गरम है। इस सूचकांक के अनुसार सिर्फ बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बंगाल में 42 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी में जिंदगी गुजार रहे हैं।
खुद को संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहकर अपना मान बढ़ाने वाले लोग इस तथ्य को जानकर सकते में आ सकते 20अफ्रीकी देशों में इससे कम निर्धन वास करते हैं।

एक सर्वे में यह भी पाया गया कि भारत लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन देने के मामले में काफी पिछड़ा हुआ है। इस लिहाज से यहां के 55 प्रतिशत लोग गरीब हैं। कमाल तो यह है कि अब तक भारत में गरीब या गरीबी का कोई विवाद रहित आकलन नहीं हो सका है।
मसलन, पांच साल पहले विश्व बैंक ने भारत में गरीबों की संख्या 44 फीसदी आंकी थी जबकि भारतीय योजना आयोग की नजर में कुल 25.7 प्रतिशत लोग गरीब थे। तीन साल बाद अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने पाया कि सिर्फ 33 प्रतिशत लोग सामान्य जीवन जी रहे हैं जबकि अगले साल एनसी सक्सेना समिति को आधे लोग विपन्न नजर आए।
इन सबसे अलग योजना आयोग की ही तेंदुलकर समिति ने इस साल देश में 37.2 प्रतिशत लोगों को वंचितों की श्रेणी में रखा। आप इन आंकड़ों के वैषम्य को देखकर ही समझ सकते हैं कि ये जरूरतमंदों का क्या भला करेंगे? जिन लोगों पर गरीबी दूर करने की जिम्मेदारी है, वे ही जब मर्ज का आकलन ही नहीं कर पाएंगे तो भला उसका इलाज क्या करेंगे? यही वजह है कि अब तक मरीजों का इलाज होता रहा है, मर्ज का नहीं।
हुक्मरां भी इस नेक काम के नाम पर सिर्फ नारे गढ़ते रहे हैं। कोई कहता है कि हर हाथ को काम और हर खेत को पानी दिलाकर छोड़ेंगे। किसी ने गरीबी हटाने की बात कही। खुद को वंचितों का मसीहा बताने वाले वामपंथी तीन दशक से पश्चिम बंगाल पर हुकूमत कर रहे हैं, उन्होंने भी गरीबों का कोई भला नहीं किया। बंगाल आज भी देश के सबसे साधनविहीन लोगों का समूह बना हुआ है।
मतलब साफ है कि गरीबी हटाने में किसी की रुचि नहीं है। यही वजह है कि लोग अकसर मजाक में कहते हैं कि हिन्दुस्तान अमीर है लेकिन हिन्दुस्तानी गरीब। कुछ आंकड़े इस उपहास को बल देते हैं। हिन्दुस्तान में गरीब कितने हैं, यह तो नहीं मालूम पर अमीरों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। दिसंबर 2007 में हिन्दुस्तान में कुल 21 अरबपति हुआ करते थे। तीन साल में इनकी संख्या बढ़कर 331 हो चुकी है।
खुद हमारी संसद और विधानमंडलों में करोड़पतियों की गिनती में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी होती जा रही है। लोकसभा में इस समय 300 सदस्य करोड़पति हैं। आपको यह तो मालूम ही होगा कि भारतीय जनता के लोकतांत्रिक अरमानों के इस प्रतिनिधि सदन में 545 सदस्य होते हैं।
इसे दुर्भाग्य ही तो कहेंगे कि एक गरीब देश में अमीर जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। वंचितों की गिनती को लेकर मतभेद हैं, पर अमीरों की गिनती पर कोई सवाल नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि अमीरों की तादाद में बढ़ोतरी कोई बुरी बात नहीं है, यह नौजवान देश की उम्मीदों और जोश का प्रतीक है।
अगर आज अमीर बढ़ रहे हैं और उनके साथ मध्य वर्ग पनप रहा है तो कल गरीबी जरूर कम होगी। वे सही हो सकते हैं। पर गरीबी हटाओ को नारे से हकीकत में तब्दील करने के लिए जिस तेजी और तत्परता की जरूरत थी, उसका अभाव बरस दर बरस महसूस किया गया है।
तो क्या शासकों की सोच बदलेगी? उम्मीद की रोशनी जलाए रखने में हर्ज ही क्या है?

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