दुनिया का एक सर्वोच्च गणराज्य है उसके हम आजाद बाशिंदे हैं पर क्या वाकई हम आजाद हैं? रीति रिवाजों के नाम पर कुरीतियों को ढोते हैं , धर्म ,आस्था की आड़ में साम्प्रदायिकता के बीज बोते हैं। कभी तोड़ते हैं मंदिर मस्जिद कभी जातिवाद पर दंगे करते हैं। क्योंकि हम आजाद हैं.... कन्या के पैदा होने पर जहाँ माँ का मुहँ लटक जाता है उसके विवाह की शुभ बेला पर बूढा बाप बेचारा बिक जाता है बेटा चाहे जैसा भी हो घर हमारा आबाद है हाँ हम आजाद हैं। घर से निकलती है बेटी तो दिल माँ का धड़कने लगता है जब तक न लौटे काम से साजन दिल प्रिया का बोझिल रहता है अपने ही घर में हर तरफ़ भय की जंजीरों का जंजाल हैं हाँ हम आजाद हैं। संसद में बैठे कर्णधार जूते चप्पल की वर्षा करते हैं। और घर में बैठकर हम देश की व्यवस्था पर चर्चा करते हैं हमारी स्वतंत्रता का क्या ये कोई अनोखा सा अंदाज है? क्या हम आजाद हैं?......
21वीं सदी तक आते-आते हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस के मायने बहुत कुछ बदल गए हैं। एक तरफ 'इंडिया' के भीतर 'नया अमेरिका' तेजी से विकसित हो रहा है, तो दूसरी तरफ असली भारत आज भी बदहाल और भूखा है। हमारे लिए स्वतंत्रता के मायने बस इतने ही हैं कि हम आजाद हैं। इस एक दिन की आजादी को हम किन्हीं सांस्कृतिक समारोहों में शरीक होकर बस निपटा लेते हैं। थोड़ी देश और समाज की वर्तमान हालत पर चिंता व्यक्त कर लेते हैं। कुछ आमंत्रित गरीबों को कुछ पैसा या सम्मान देकर इंसानियत के भ्रम में कुछ क्षण जी लेते हैं। बहुत जरूरी हुआ तो देश के शहीदों को याद इसलिए कर लेते हैं ताकि उनका कर्ज उतार सकें। कुछ समझदारों ने इधर एक नई परंपरा ही विकसित कर डाली है, वे रात में शहीदों के नाम पर आतिशबाजी को अंजाम देते हैं। तो कुछ हाथों में मोमबत्तियां थामें जाने क्या संदेश देना चाहते हैं। स्वतंत्रता दिवस को महज जश्न के रूप में निपटा देते हैं।एक लंबे समय से यह सवाल मेरा पीछा कर रहा है कि हम कहां, कितने और कैसे आजाद हैं? हममें से कुछ ने तो अपनी-अपनी आजादियों को ही देश, समाज और जन की आजादी मान लिया है। हम अपनी जिंदगी को स्वतंत्रता के साथ जी लेते हैं, तो सोच-समझ लेते हैं कि सारा भारत ऐसे ही जी-रह रहा होगा। यह विडंबना ही है कि कोई भी अपनी स्वतंत्रता को किसी दूसरे के साथ साझा नहीं करना चाहता। जैसे स्वतंत्रता उसकी बपौती हो। विभिन्न खांचों में ढली-बंधी यह स्वतंत्रता मुझे अक्सर आतंकित करती है।वर्ग और जाति की संकीर्ण अवधारणाएं आज भी हम पर वैसे ही हावी हैं, जैसे सदियों पहले हुआ करती थीं। आज भी समाज में इंसान की पहचान इंसानियत से नहीं उसकी जाति और उसके वर्ग से तय होती है। वर्ग और जातियों में विभक्त हमारा समाज इनसे मुक्त होने का माआदा कभी दिखाता ही नहीं। आज भी गांव-कस्बों में पंचायतें किसी के जीने न जीने के अधिकार को छिनने की ताकत रखती हैं। वर्ग और जाति के इस दंभ को अक्सर हम अपनों के ही बीच देख-सुन सकते हैं। कुछ धर्म ने, तो कुछ धार्मिक अंधभक्तों ने ऐसे जटिल नियम-कानून बना दिए हैं, जिसका पालन हमें किसी की भी स्वतंत्रता को लांघकर करना पड़े, तो करेंगे। क्योंकि यह धर्मसम्मत है।बेशक स्वतंत्रता और लोकतंत्र बहुत ही मोहक शब्द हैं। पर इन शब्दों की मोहकता पर ग्रहण इसलिए लगता रहता है क्योंकि हमने इन्हें सिर्फ खुद के लिए ही संरक्षित कर लिया है। यानी मेरी स्वतंत्रता। मेरा लोकतंत्र। असहमत या क्रोधित होकर किसी को मार डालने का पाप अब हमारी स्वतंत्रता और लोकतंत्र में शामिल हो गया है। अपना मकसद हल करने के लिए किसी दूसरे की स्वतंत्रता या लोकतंत्र को छिनने पर अब हमें अफसोस नहीं होता।इस 63 साल की स्वतंत्रता का सुफल बस इतना ही है कि हम अब अपनों के ही गुलाम बना लिए गए हैं। जो अर्थ और बल संपन्न है, वो हमारा अन्नदाता है। वो अपने और हमारे बीच गहरे भेद को लेकर चलता है। वो इसी भेद को अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र मानता है, ताकि हमारी गुलामी पर वो राज कर सके। कमाल देखिए, यहां तो जनता जिसे अपना वोट देकर चुनती है, वो भी कुर्सी पाते ही बदल जाता है। भले ही यहां जनता को वोट का अधिकार हो परंतु राजनीतिक स्वतंत्रता का अधिकार उसके पास नहीं है। राजनीति में जनता और नेता के बीच बहुत दूरियां हैं। जनता उनकी गुलाम है इसका एहसास हमारे नेता उसे हर दम कराते रहते हैं। और यही नेता स्वतंत्रता दिवस पर जनता पर यूं न्यौछावर हो जाते हैं जैसे उन्होंने अपना हर अधिकार जनता को दे रखा है।इस कथित खुशहाल और स्वतंत्र भारत में मुद्रास्फति की दर पर तो चिंता जताई जाती है लेकिन सूखे की मार से आत्महत्या कर रहे किसान किसी सरकार या बुद्धिजीवि की चिंता का विषय नहीं बन पाते। सिमटते गांव और बंजर होते खेत पर आजाद भारत में कोई आंसू नहीं बहाता। आज हर कोई कैसे भी इंडिया को स्माल अमेरिका बना देना चाहता है। चमकते-दमकते इंडिया में भूखे-नंगे भारत का क्या काम?आखिर हम भारत की किस आजादी पर प्रसन्न होएं? कैसे कहें कि हम एक आजाद लोकतांत्रिक मुल्क हैं? यहां न कोई छोटा है न बड़ा। न अमीर है न गरीब। न वर्ग है न जाति। न अपराध है न नौकरशाही। बताएं क्या कह सकते हैं हम यह सब? हम तो अपने ही हाथों अपने देश को तोड़ने पर तुले हैं।किस मुश्किल से हमने इस आजादी को पाया है उस दर्द को हम इसलिए भी महसूस नहीं कर सकते क्योंकि हम उस दौर और पीड़ा से गुजरे ही नहीं हैं। मगर इसका यह मतलब तो नहीं कि हम देश और जन की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की ताकत को अपने हिसाब से इस्तेमाल करें। यह देश, यह स्वतंत्रता, यह लोकतंत्र किसी एक का नहीं हम सबका है। फिर क्यों नहीं हम इस सम्मान को सबके लिए बनाकर रख सकते।'हम आजाद' हैं कि भावना को जब तक हम हर भारतवासी के जहन में महसूस नहीं करते, तब तक इस आजादी का हमारे लिए कोई मतलब नहीं रह जाता।
2 टिप्पणियां:
आपके विचार वास्तव में सत्य के काफी करीब हैं. यह एक बेहद खूबसूरत प्रयास है लेकिन पता नहीं क्यों आप नकारात्मकता के अधिक करीब दिख रहे हैं, यह भी सच्चाई है कि समस्या का समाधान भी हम ही हैं.
अच्छी पोस्ट।
word veification हटा देने से टिप्पणि में सुविधा रहती है।
एक टिप्पणी भेजें