शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

म्यांमार में लोकतंत्र का आगाज

भारत का पड़ोसी देश म्यांमार, जो 1991 तक बर्मा के नाम से जाना जाता था, धीरे-धीरे लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा है। ऐसा वहां की संसद की 45 सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों से प्रतीत होता है। बर्मा की आजादी के जननायक जनरल आंग सान की पुत्री है सू की . 1947 में आजादी से महज छह महीने पहले ही सान की हत्या कर दी गयी थी. उस वक्त सू की की उम्र सिर्फ दो साल थी. 1960 में वह अपनी मां के साथ भारत चली आयीं, जहां उनकी मां को म्यांमार का राजदूत नियुक्त किया गया था।
भारत में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडीश्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. चार साल तक भारत रहने के बाद वह ब्रिटेन चली गयीं, जहां उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की. इसके बाद, 1988 में वह रंगून लौटीं. यह वह अवधि था, जब म्यांमार जबरदस्त राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था. हजारों छात्र और बौद्ध देश में लोकतांत्रिक सुधार को लेकर जगह-जगह विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. 26 अगस्त 1988 को दिये अपने भाषण में उन्होंने खुद कहा, अपने महान पिता की बेटी होने के कारण मैं खुद को इन सबसे अलग नहीं कर पायी. इस तरह सू की म्यामांर की राजनीतिक उथल-पुथल में शामिल हो गयीं. उन्होंने तत्कालीन तानाशाह जनरल विन के खिलाफ प्रदर्शनकारियों का मोर्चा संभाल लिया.इस तरह से दशकों बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत वहां चुनाव हुए उससे तो यही कहा जा सकता है कि यह एक अथक संघर्ष की जीत है. म्यांमार को सैन्य शासन से लोकतंत्र की इस दहलीज पर लाने में नेता आंग सान सू की की भूमिका को नजरअंदाज एक इतिहास से नजरें चुराने जैसा होगा. अगर देखें तो नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की दक्षिणी अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला की तरह एक शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन का एक अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बन चुकी हैं। 1990 में बर्मा में स्वतंत्र चुनाव हुए थे, जिनमें सू की की पार्टी को जीत हासिल हुई थी लेकिन सैनिक तंत्र ने इसे नहीं माना। सेना खुद सत्ता पर काबिज रही। बर्मा के संविधान के अनुसार 664 सदस्यों वाली राष्ट्रीय असेंबली में दो तिहाई सीटें सेना के लिए आरक्षित हैं। सेना ने पिछले साल फिर चुनाव कराये जिनका सू की की पार्टी ने बहिष्कार किया। लेकिन सेना ने नरम रुख अख्तियार करते हुए सिविलियन सरकार को सत्ता सौंप दी थी। फिर भी असली कमान सेना के ही हाथ में रही। बर्मा के राष्ट्रपति स्वयं एक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं। संसद की 45 सीटों के लिए उपचुनाव इसलिए कराने पड़े क्योंकि बर्मा के संविधान के अनुसार कोई मंत्री संसद सदस्य नहीं हो सकता। सेना में सेना समर्थित पार्टी यू.एस.डी.पी. का पहले से ही बहुमत है। वर्षों नजरबंद रहने वाली बर्मा की लोकप्रिय जन नेता सू की अपनी पार्टी की मात्र 10 प्रतिशत सीटों के बल पर कोई बड़ा बदलाव नहीं ला पायेगी। सैन्य शासन के कारण पश्चिमी देशों की तरफ से बर्मा पर कई तरह के आर्थिक व अन्य प्रतिबंधों के कारण बर्मा के सैन्य तंत्र को दबाव में झुकना पड़ा। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि बर्मा ने लोकतंत्र की दहलीज पर पांव रख दिये हैं। बर्मा भारत का एक ऐसा पड़ोसी देश है जो 1937 तक भारत का ही एक अंग था, भारत अब यह उम्मीद कर सकता है कि बर्मा में उल्फा और नगा विद्रोहियों के कैंपों को समेटने में सू की के प्रभाव से कुछ मदद मिलेगी और वहां की सरकार भारत के साथ अपने संबंधों को सुधारने की ओर प्रयासरत होगी। बर्मा में अब सबसे ज्यादा जरूरी है संविधान संशोधन ताकि वहां आम चुनाव का रास्ता साफ किया जा सके।


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