सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

स्वाभाविकता का सौंदर्य

अक्सर लोग मुझसे कहते हैं कि मुझे इंसानों को परखने की समझ नहीं है। वे मानते हैं कि यह एक बड़ी कमी है, लेकिन मैं इसे अपनी सबसे खूबसूरत विशेषता मानता हूँ। परखने की प्रवृत्ति ने ही तो हमें बनावटी बना दिया है। जब हम हर चीज़ को कसौटी पर कसने लगते हैं, तो सहजता कहीं खो जाती है। क्या इस सृष्टि में कुछ भी ऐसा है जो पहले परखकर, जाँच-परखकर अपना योगदान देता है?

हवा जब बहती है, तो यह नहीं सोचती कि वह किसे छूए और किसे नहीं। वह हर किसी के लिए समान रूप से बहती है—निर्बाध, निश्छल। सूरज जब अपनी किरणें बिखेरता है, तो यह नहीं देखता कि कौन उसके प्रकाश का पात्र है और कौन नहीं। वह बस रोशनी देता है, बिना किसी भेदभाव के। वृक्ष जब फल देते हैं, तो यह नहीं तय करते कि कौन उनके योग्य है। वे बस अपनी प्रकृति के अनुसार फलते-फूलते हैं और अपने मीठे फल सबको अर्पित कर देते हैं।

माँ का प्रेम भी तो ऐसा ही होता है। वह अपने बच्चे से यह नहीं पूछती कि क्या वह उसकी ममता के योग्य है। वह बिना किसी शर्त, बिना किसी परख के, बस प्रेम करती है। धरती बिना शिकायत सब कुछ सहती है—हमारी लापरवाहियाँ, हमारे अत्याचार, हमारे स्वार्थ—फिर भी अपनी गोद में जगह देती है। और मृत्यु? वह भी कभी परखकर नहीं आती। उसके लिए कोई अमीर या गरीब नहीं होता, कोई ऊँच-नीच नहीं होता। वह सबको एक समान अपनाती है।

फिर हम इंसान क्यों हर चीज़ को परखने में लगे रहते हैं? हमने अपने रिश्तों में, अपने भावनाओं में, अपने प्रेम में इतनी शर्तें जोड़ ली हैं कि सबकुछ बनावटी सा लगने लगा है। हमने सहजता को खो दिया, निश्छलता को पीछे छोड़ दिया। अब प्रेम भी परखकर किया जाता है, दोस्ती भी जाँची जाती है, रिश्तों को भी सौदे की तरह तौला जाता है। क्या हमने कभी सोचा कि अगर प्रकृति भी हमें परखती, तो क्या हम उसके योग्य होते?

शायद हमें हवा, सूरज, वृक्ष, माँ, धरती और मृत्यु से सीखना चाहिए। हमें भी देना आना चाहिए, बिना शर्त, बिना परख के। अगर हम भी इस जीवन को स्वाभाविकता से जीना सीख जाएँ, तो शायद रिश्ते आसान हो जाएँ, प्रेम सच्चा हो जाए, और जीवन कहीं अधिक सुंदर हो जाए।