गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

अकबरपुर: मेरे बचपन की गलियां


बिहार के नवादा जिले का छोटा सा कस्बा अकबरपुर, जो विकास की दौड़ में भले ही पीछे रह गया हो, लेकिन अपनापन, प्यार और सादगी में अब भी अव्वल है। समय के साथ बहुत कुछ बदल गया, लेकिन नहीं बदलीं यहाँ की संकरी गलियाँ, तालाब की ठहरी हुई शांति, और लोगों का आत्मीय व्यवहार। शायद यही कारण है कि यह कस्बा मेरे दिल के सबसे करीब है।

बचपन की यादें और दोस्ती की शरारतें

मेरा बचपन यहाँ की मिट्टी में खेलते-कूदते बीता। स्कूल के दिन, दोस्त संदीप और कोशलेंद्र के साथ की गई शैतानियाँ, और क्लास में बात-बात पर होने वाले झगड़े—ये सब यादें अब भी जेहन में ताजा हैं। स्कूल की चारदीवारी के पीछे तालाब किनारे बैठकर घंटों गप्पें मारना, और अगर समय बच जाता तो नदी के किनारे ढेला फेंकने की प्रतियोगिता करना, ये सब बचपन की नायाब खुशियाँ थीं।

बिच बाजार में जैबा मैया की मिठाई की दुकान हुआ करती थी, जहाँ हमारे मिडिल स्कूल के सभी शिक्षकों का खाता चलता था। शिक्षक सुबह-शाम चाय पीते और महीने के अंत में वेतन मिलने पर पैसे चुकाते। हॉस्टल में रहने वाले कुछ शरारती छात्र कभी-कभी मिठाई खाकर किसी और के खाते में पैसा लिखवा देते और चुपचाप चलते बनते। ये छोटी-छोटी बातें ही उस समय की मासूमियत और मज़े का हिस्सा थीं।

नाना जी और स्कूल के दिन

मैंने अपने बचपन के पाँच साल इसी छोटे से कस्बे में गुजारे। अकबरपुर बिहार और झारखंड के बॉर्डर पर बसा हुआ है और कभी इसे विकास के नाम पर बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका माना जाता था। मुख्य सड़क से करीब पाँच किलोमीटर दूर बसे इस कस्बे में मेरे नाना जी 1975 से मिडिल स्कूल में शिक्षक थे, और बचपन में मैं उन्हीं के साथ रहता था। आज की तरह दाखिले के लिए लंबी दौड़ नहीं लगानी पड़ी, न ही किसी इंटरव्यू या डोनेशन की जरूरत पड़ी। नाना जी ने बस अपने स्कूल में मेरा नाम लिखवा दिया, और महज 30 रुपये में मेरा दाखिला हो गया। स्कूल में हॉस्टल तो नहीं था, लेकिन शिक्षकों के लिए रेजिडेंस मिला हुआ था, इसलिए मैं भी नाना जी के साथ वहीं रहा करता था।

पढ़ाई के सख्त नियम और गणित की जंग

सुबह तीन बजे उठकर पढ़ाई करना, मानो अगर एक घंटा पढ़ लिया तो विवेकानंद बन जाऊँगा! पढ़ने को लेकर सख्त शर्तें थीं—बिस्तर पर नहीं, बल्कि बोरा बिछाकर ज़मीन पर बैठकर पढ़ना, और ज़ोर से आवाज़ में पढ़ाई करना ताकि खुद को सुनाई दे। ये नियम उस समय मुश्किल लगते थे, लेकिन आज सोचता हूँ तो लगता है कि वे अनुशासन सिखाने के तरीके थे।

दिन के उजाले के साथ दूसरी जंग शुरू होती थी—गणित से लड़ाई! ट्यूशन पढ़ने जाना अनिवार्य था, और हमारे मास्टर साहब अक्सर झल्लाकर कहते, "तुम्हारे दिमाग़ में भूसा भरा है या गणित के लिए कोई जगह बची भी है?" आज जब सोचता हूँ कि जिंदगी में जोड़, गुणा और भाग से ही काम चल जाता है, तो समझ नहीं आता कि वर्गमूल, साइन थीटा, कॉस थीटा वगैरह क्यों पढ़ाया जाता था।

बदलते समय के साथ अकबरपुर का वही अपनापन

समय बदला, विकास की लहरें धीरे-धीरे इस कस्बे तक भी पहुँचीं, लेकिन जो चीज़ें नहीं बदलीं, वे हैं यहाँ के लोगों का अपनापन, तालाब का ठहराव, और उन सकरी गलियों में बसी बचपन की यादें। आज भी जब मैं अकबरपुर की उन्हीं गलियों से गुजरता हूँ, तो लगता है कि बचपन अब भी वहाँ किसी मोड़ पर खड़ा मुझे देख रहा है। शायद यही वजह है कि यह कस्बा मेरे लिए सिर्फ एक जगह नहीं, बल्कि मेरी यादों का गुलदस्ता है।