सुबह की पहली 'किरण' ने जब कमरे की देहलीज़ पर हल्की-सी दस्तक दी, तो ऐसा लगा जैसे कोई भूली-बिसरी याद रूह को छूकर गुज़र गई हो। हवा में घुली ताज़गी में एक मीठी कशिश थी—जैसे वक़्त ठहरकर कोई पुराना अफ़साना सुनाने आया हो। नर्म-ओ-नाज़ुक रोशनी जब दीवारों से लिपटी, तो उनका रंग और भी गहरा हो गया—जैसे कोई भूली-बिसरी याद हल्के से सांस लेकर फिर से ज़िंदा हो उठी हो।
तभी, आसमान में परवाज़ भरता परिंदों का एक कारवां कमरे में दाख़िल हुआ। वे किसी अल्हड़ उम्मीद की तरह भीतर चले आए—बेपरवाह, आज़ाद, और अपनी ही धुन में मगन। कोई किताबों पर बैठा, तो कोई शीशे के सामने ठहरकर खुद से बातें करने लगा। एक परिंदा पूजा की थाली के पास उतरा और नन्ही चोंच से प्रसाद के टुकड़े चुनने लगा, जैसे किसी पाक बरकत की तलाश में हो। उनकी मासूम चहचहाहट में एक अजीब-सी बेख़ुदी थी, मानो ज़िंदगी ने एक पल के लिए अपना संगीत छेड़ दिया हो। हवा में उनके पंखों की हल्की सरसराहट ने माहौल को और नूरानी बना दिया।
कुछ लम्हों तक यह कारवां ठहरा, फिर अचानक जैसे कोई ख़्वाब आंखों से फिसल जाए, वैसे ही सब फिर से आसमान की जानिब उड़ चले। लेकिन उनकी आमद कमरे में एक अजीब-सी रूहानी रोशनी छोड़ गई—जैसे किसी बिछड़े हुए अपने की महक देर तक महसूस होती रहे। सुबह अब पहले से ज्यादा हसीं और पुरसुकून लगने लगी थी—जैसे ज़िंदगी फिर से उम्मीद के पर फैला रही हो।
राहुल
9 फरवरी 2025