खिड़की की सलाख़ों से टिका मेरा चेहरा,
सामने चाँद, पेड़ों के झुंड में ठहरा।
रुका है जैसे थककर कोई राहगीर,
या बंध गया हो वक़्त की ज़ंजीर।
मैं बंद कमरे में या चाँद है क़ैद,
दोनों पर पहरा, दोनों बेबस और नासेह।
एक दीवार के इस पार,
दूसरा दीवार के उस पार।
रात का सन्नाटा अंदर भी, बाहर भी,
हवा तक थमी है सहमी-सहमी।
पेड़ चुप हैं, पहाड़ भी ख़ामोश,
शायद सब हैं इस कैद में मदहोश।
चाँद देखता मुझे, मैं देखूँ उसे,
दोनों आँखों में है इक ही गिले।
कौन ज्यादा आज़ाद, कौन ज्यादा गिरफ़्तार?
कमरे के अंदर मैं या बाहर चाँद लाचार?