रविवार, 11 अप्रैल 2010

सानिया के निकाह

राहुल कुमार
सानिया मिर्जा के निकाह की खबर से बहुत दुखी थे कुछ लोग। इसलिए नहीं कि हर सिलेब्रिटी की शादी होने पर कई चाहने वालों के दिल टूट जाते हैं बल्कि इसलिए कि सानिया पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक से निकाह कर रही है। उनका गुस्सा इस बात पर है कि पाकिस्तानी से निकाह क्यों। तो भई, जब इटली की सोनिया भारत के राजीव से शादी कर सकती हैं, जब इंग्लैंड की एलिजाबेथ हर्ली भारत के अरुण नैयर से शादी कर सकती हैं तो भारत की सानिया पाकिस्तान के शोएब से निकाह क्यों नहीं कर सकतीं?
यह सही है कि इस देश में बड़ी तादाद उन लोगों की है जो शादी और प्यार को जाति और धर्म से जोड़कर देखते हैं। वे लड़की नहीं देखते, लड़की की जाति देखते हैं, उसके बाप की औकात देखते हैं, भाइयों का ओहदा देखते हैं, दहेज़ की रकम देखते हैं और लड़कीवाले शादी पर कितना खर्च करेंगे, यह देखते हैं। कुछ लोग हैं कि बेटा या बेटी जाति से बाहर शादी कर ले तो उनका कत्ल कर देते हैं। तो ऐसे ही छोटी और दकियानूसी सोच वाले लोग अब सानिया से कह रहे हैं कि हम मर गए थे क्या जो एक पाकिस्तानी से निकाह कर रही हो?
भइया, क्या पाकिस्तान के किसी शख्स से रिश्ता जोड़ना गुनाह है? जो भी जंग है वह सियासी है और जब तक सियासत में बैठे लोग इसे नहीं सुलझाना चाहेंगे तब तक यह नहीं सुलझेगी। आम जनता दोनों देशों की एक-सी ही है।
कुछ लोग सानिया के हितैषी बनते हुए कह रहे हैं कि शोएब का कैरक्टर ठीक नहीं है। वे याद दिलाते हैं कि सयाली भगत से उनका अफेयर था और पहले भी एक लड़की ने उस पर शादी होने और बाद में छोड़ देने का आरोप लगाया था। तो जब सानिया को इससे दिक्कत नहीं है तो हम कौन होते हैं सवाल पूछने वाले? वैसे सानिया भी खुद एक सगाई तोड़ चुकी हैं, इसलिए उनको भी इससे कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।
यह सानिया की निजी जिन्दगी है और उन्हें किससे निकाह करना है, किसके साथ अपनी जिंदगी गुजारनी है, यह उनका अपना फैसला ही होना चाहिए। लेकिन वे शायद भूल गए है कि निकाह सानिया का है न कि उनका अपना और जब सानिया और उनके परिवार वाले खुश हैं तो वे कौन होते हैं बवाल मचाने वाले? लेकिन जो लोग अपनी होनेवाली पत्नी का फैसला तक खुद नहीं करते और अपने मां-बाप पर छोड़ देते हैं, उन्हें यह कैसे हजम होगा कि एक लड़की अपने दूल्हे का फैसला खुद कर रही है।
कुछ का तर्क यह है कि सानिया सिलेब्रिटी हैं तो इसलिए उन्हें उदाहरण पेश करना चाहिए। तो क्या सिलेब्रिटी की कोई पर्सनल लाइफ नहीं होती? क्या उसको अपनी मर्जी से जीने का अधिकार नहीं है? और ऐसा हमारे देश में और एशिया के कुछ मुल्कों में ही क्यों होता है कि सिलेब्रिटी है तो उसकी पर्सनल लाइफ खत्म। अगर वह अपनी जिम्मेदारी सही से नहीं निभा रहा है तो उतना हल्ला नहीं होगा पर उसकी पर्सनल लाइफ पर ताक-झांक कर लोग खूब हल्ला मचाते हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सार्कोजी अगर भारत में नेता होते और तब वह यहां की कार्ला ब्रूनी टाइप किसी मॉडल से शादी करते तो बस... यहां तो उनका पॉलिटिकल करियर तबाह ही हो जाता। लोग और मीडिया उन्हें चैन से जीने नहीं जीते। आखिर क्यों? हम क्यों नहीं अपनी मानसिकता बदलते? नेताओं का भ्रष्टाचार, घोटाला वगैरह तो सब चुपचाप बर्दाश्त कर जाते हैं, उन्हें दोबारा चुनकर भी लाते हैं मगर किसी की निजी जिंदगी में कुछ उथल-पुथल हुई नहीं कि सब उछल-कूद मचाने लगते हैं।

लड़कियों के सिगरेट पीने के 10 बहाने

राहुल कुमार :
सिगरेट पीती लड़कियां आपने देखी होंगी। आपको क्या लगता है, ये लड़की लोग सिगरेट पीती क्यों हैं? उससे भी बड़ा सवाल - क्या उनको सिगरेट पीनी चाहिए?इस पर एक लंबी-चौड़ी बहस चल सकती है। वैसे कई लोग इस पर बहस करना भी नहीं चाहेंगे क्योंकि उनके लिए लड़कियों के सिगरेट पीने या न पीने से ज्यादा एंटरटेनिंग लड़कियों से ही जुड़ी दूसरी बातें हैं।अपन लोग भी यहां बहस नहीं करेंगे क्योंकि बहस होनी है तो इस पर हो कि सिगरेट पी जानी चाहिए या नहीं। इस पर नहीं कि मर्द तो सिगरेट पी सकते हैं लेकिन लड़कियां नहीं पीएं। देश-दुनिया में मर्दों का सिगरेट पीना इतना आम और स्वाभाविक टाइप है कि वे ऑफिस की व्यस्तता में बड़े आराम से और बिना किसी संकोच के कॉलीग्स से कहते हैं - आता हूं कुछ देर में। ये कह कर वे सीढ़ियां उतर कर चौड़े में सुट्टा मारते हैं और फिर ऊपर आकर 'व्यस्त' हो जाते हैं। इसे कहते हैं सुट्टा ब्रेक। लेकिन लड़कियां खुलेआम सुट्टा ब्रेक नहीं ले सकतीं। उन्हें सिगरेट पीने के लिए बहाने बनाने पड़ते हैं? ये वे बहाने हैं जो अभी यूनिवर्सिली अक्सेप्टेड भले ही न हुए हों, दिल्ली, मुंबई या भोपाल में एकाध परिवर्तन के साथ चलन में आते जा रहे हैं।
बहाना नंबर 1 - 'पैरेंट्स ने पॉकेट मनी कम कर दी है... मोबाइल बिल हर महीने बढ़ जाता है तो मैं क्या करूं? नेटवर्किंग अभी से नहीं करूंगी तो क्या बुढ़ापे में करूंगी? हद है...दिमाग भन्ना रहा है॥इन ओल्डीज को कौन समझाए यार॥ We do have some needs...ला यार, आज मैं भी एक पी ही लूं।' (करियर की जद्दोजहद में पड़ी युवा लड़कियों का अक्सर का बहाना। यह बहाना काफी पुराना है वैसे। हालांकि इस तरह के अब के चलन में होने न होने को ले कर पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता।)
बहाना नंबर 2- स्किन का ध्यान रखना चाहिए। कॉफी और चाय बार-बार नहीं पीनी चाहिए। ड्राई हो जाती है। होंठ भी काले होने लगते हैं। बार बार टी- कॉफी की तलब लगे तो क्या करूं? सिगरेट ही पी आती हूं।
बहाना नंबर 3 - जिन्दगी में कुछ बचा नहीं है जिसकी परवाह करूं। किसी से बात करने का मन नहीं करता। दरअसल, बात करने लायक लोग आसपास हैं ही कहां। हर कोई मतलब का यार है। किसी की चुगली करने से बेहतर है... अकेले कोने में जा कर सुट्टा लगाना।
बहाना नंबर 4 - सुबह-सुबह 'प्रेशर' नहीं बनता। पांच गहरे कश अंदर और....।बहाना नंबर 5 - टशन। (यह बहाना कम सच्चाई अधिक है। ग्लोबल परिप्रेक्ष्य में न लें, तो हर लड़की पहली बार स्मोक करते समय कहीं न कहीं इस टशन-इफेक्ट से प्रभावित होती है। जिन महिलाओं ने जीवन में केवल एक ही बार सुट्टा मारा है, उनसे पूछें तो वे इसी टशन-इफेक्ट की लपेट में आईं थीं। विमिन स्मोकर्स इस बात को खुले में कभी नहीं स्वीकारेंगी कि वे स्मोकिंग करते हुए टशन (स्टाइल) का खास ख्याल रखती हैं। )बहाना नंबर 6 - ऑफिस का सुट्टा ब्रेक। ये बगल में बैठा गंजा मोटा चोख्खा दिन भर सिस्टम पर मैट्रिमोनियल खंगालता है और सुट्टा ब्रेक ऐसे लेता है जैसे खूब काम करके आया हो...तो मैं (या हम) क्यों न लेकर आएं सुट्टा ब्रेक।
बहाना नंबर 7 - 'पुलिसवालों से अंदर की खबर लेनी होती हैं... क्राइम रिपोर्टिंग में बिंदास होना जरूरी है... बहन जी टाइप नहीं चलेगी... इसलिए दिन भर चाहे सिगरेट पिऊं या नहीं, पर दुनिया के सामने पीते हुए दिखना जरूरी है।'
बहाना नंबर 8 - आज बहुत टेंशन में हूं। अकेले बैठना चाहती हूं। कुछ देर। मैं और मेरी सिगरेट... ( यह बहाना जेंडर-न्यूट्रल है यानी मर्द भी इसका इस्तेमाल करते हैं लेकिन शराब पीने के लिए। अल्कोहल, स्मोकिंग और टेंशन का रिश्ता तो प्राचीनतम है। याद करें देवदास।)

बहाना नंबर 9 - 'इंक्रीमेंट हुआ है... बर्थडे है... एग्ज़ाम क्लियर हो गया... मूड मस्त है... बाल -बाल बचे रे'॥ आदि इत्यादि। (यानी, कोई भी ऐसी खुशी जो डाउटफुल थी।)
बहाना नंबर 10 - 'बहाना? वॉट रबिश। मुझे किसी बहाने की ज़रूरत नहीं। जब मन करता है, सुलगा लेती हूं। 'Am not a kid darling।'वाकई कई लोगों को कुछ भी करने के लिए किसी भी बहाने की जरूरत नहीं होती। जिन्हें होती है, वे देते होंगे। पर क्या आपने सोचा है कि महिलाओं को एक सिगरेट जलाते समय बहाना बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ती है? आसपास के लोग उन्हें सिगरेट सुलगाते देख चुके होते हैं, फिर भी उन्हें क्यों एक्सक्यूज़ देना पड़ता है? कई बार तो ये एक्सक्यूज़ खुद से भी देती हैं लड़कियां... क्या इसलिए कि कहीं न कहीं अपराध या संकोच बोध जड़ा होता है मन में? मन में यह डर भी कि देखनेवालों की निगाह में अब वे अच्छी लड़की नहीं रहेंगी? यह अपराध या संकोच का भाव किसी पुरुष में कभी पैदा नहीं होता, जबकि, सिगरेट का हरेक कश एक औरत के लिए भी अस्वास्थ्यकर है और पुरुष के लिए भी।

पीएम ने बनाया एप्रिल फूल?

राहुल कुमार:
देश के बच्चों को मिले एक कानून ने बता दिया कि सरकार ने बच्चों का एप्रिल फूल बना दिया है। आप समझ गए होंगे, मैं बच्चों को मिले शिक्षा के अधिकार (राइट टु एजुकेशन ) की ही बात कर रहा हु . 6 से 14 साल तक की उम्र के बच्चे के लिए शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल कर लिया गया है। यानी 14 साल तक के इस देश के हरेक बच्चे का यह मौलिक अधिकार है कि वह स्कूल जाए, पढ़ाई-लिखाई करे, एक के बाद एक क्लास पास करे और....राजा बाबू बन जाए। सरकार ने यह अधिकार बच्चों को दे दिया है। अब से इस उम्र तक के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य एजुकेशन दी जाएगी, ऐसा सरकार कह रही है। पर दिमाग में कई सवाल कुलबुला रहे हैं। क्या अब 14 साल तक की उम्र के सभी बच्चे हमें स्कूल में दिखा करेंगे? यानी, बूट पॉलिश करते हुए, ढाबों पर बर्तन मांजते हुए, भीख मांगते हुए, ट्रैफिक सिग्नल्स पर मैगजीन-फूल बेचते हुए नहीं? बच्चों का मजदूरी करना और बच्चों से मजदूरी (किसी भी तरह का काम) करवाना भी तो गैरकानूनी है। फिर क्यों मोटरसाइकल पर पांव रखे जनता पर नजर रखे हुए पुलिस वाले को लंच के बाद की चाय देने छोकरा ही आता है? गैरकानूनी होने के बावजूद बाल श्रम तो रुका नहीं...?6 साल से छोटे बच्चों के बारे में यूपीए सरकार का क्या कहना है? 5 साल की उम्र तक गरीब का बच्चा केजी में नहीं गया, उसे अचानक अगले साल (यानी 6 साल का होते ही) प्राइमरी स्कूल में एडमिशन दे दिया जाएगा? किस क्लास में? और, 6 साल की उम्र तक वह क्या कर रहा होगा?14 साल तक एक बच्चा स्कूल जाएगा। 8वीं तक वह अनिवार्य रूप से शिक्षा ग्रहण करेगा। 8वीं के बाद? 8वीं के बाद उसका क्या होगा? क्या 8वीं क्लास तक पहुंचे एक गरीब बच्चे के मां-बाप चमत्कारी रुप से इतना कमाने लगेंगे कि बच्चे की आगे की पढ़ाई का खर्चा उठा सकें? 8वीं तक की एजुकेशन किस काम की है...कृपया बताएं। 8वीं का सर्टिफिकेट उसे कौन सी नौकरी दिलवाएगा और रोजगार के कितने द्वार उसके सामने खोलेगा, जरा पीएम महोदय बताएं?कस्बों और देहातों में ही नहीं, राजधानी दिल्ली के कई इलाकों में ऐसे कई स्कूल हैं जहां बच्चे तो बैठे हैं पर टीचर नहीं हैं। मेरी खुद की पढ़ाई जिस सरकारी स्कूल में हुई है वहां हम 12 के बोर्ड में इकनॉमिक्स का एग्जाम प्राइवेट ट्यूशन के भरोसे दे पाए क्योंकि हमारे स्कूल में साल भर तक (शायद इससे भी ज्यादा समय) के लिए टीचर ही नहीं थी। और आज तो हालात और बदतर हैं। ऐसे में यह बच्चों को शिक्षा का अधिकार देना है या बैठने के लिए टाट भर देना है?केंद्र सरकार राइट टु एजुकेशन एक्ट (आरटीई) बना कर लोगों को दिन-दहाड़े जो ख्वाब देखने के लिए कह रही है, उसकी धुरी में राज्य सरकारें हैं। यानी इस कानून को इंप्लिमेंट करना हर राज्य की जिम्मेदारी है। लेकिन कई राज्य सरकारों ने तो अगले ही दिन केंद्र सरकार को तेवर दिखा दिए थे! मध्य प्रदेश की ओर से 2 तारीख को ही कह दिया गया कि भई, हमने तो सेंट्रल गवर्नमेंट से पहले ही कहा था हम तैयार नहीं हैं क्योंकि इन्फ्रास्ट्र्क्चर मौजूद नहीं है कि कानून लागू कर सकें। अब?
1 अप्रैल को सुबह-सुबह देश के बच्चों के साथ ऐसा घोषित मजाक करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इन घोषित चिंताओं का रिअलिस्टिक हल बता सकते हैं।

झारखंड में बीपीएल सूची बनी अबूझ


ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार के आंकड़े जो कहानी कहते हैं वह काफ़ी दयनीय है. राज्य में कुल 36, 84,523 परिवार ऐसे हैं जो नरेगा में निबंधित हैं. अगर बीते समय की बात की जाये तो वर्ष 1997-2002 में बीपीएल परिवारों की संख्या 23,52,671 थी, जो 2002-07 में बढ़कर 25,48,780 हो गयी. मतलब 1997-2002 के मुकाबले अगले पांच सालों में मात्र 1,96,209 परिवार में बीपीएल में निबंधित हुये. जबकि 25 मार्च 2010 तक आंकड़ों पर गौर किया जाय तो इसमें करीब साढ़े ग्यारह लाख बीपीएल परिवारों का निबंधन हुआ है. इससे यह साबित होता है कि राज्य में बीपीएल परिवार नरेगा से अभी भी अपरिचित है, नरेगा तक उसकी पहुंच अभी भी बाधित है. इससे एक और प्रश्न उठता है कि कहीं बीपीएल सूची गलत तो नहीं है या फ़िर कंप्यूटर में फ़ीड किये गये आंकड़े विश्वसनीय नहीं है.


विश्व में अधिक लोग गरीब हैं अगर हम गरीबी के अर्थशास्त्र को जान लें तो हम जानेंगे सही अर्थशास्त्र को जो सचमुच मायने रखता है. -डॉ डब्लू शुल्ज, 1980नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते हुए अपने अभिभाषण के प्रथम वाक्य में डॉ शुल्ज ने कहा- आज अर्थशास्त्र की सबसे पेंचीदी पहेली यह है कि लंबे-लंबे अरसे तक लोग इतने गरीब क्यों रहते हैं और पुश्त दर पुश्त गरीबी उन्हें प्रताड़ित करती है और उनका योगदान मानव संसाधन एवं भौतिक पूंजी के संवर्धन में संभव नहीं हो पाता है.झारखंड में पुश्त दर पुश्त गांवों में गहराती गरीबी गंभीर अध्ययन का विषय है. गरीबी रेखा निर्धारण का उद्देश्य था कि विभिन्न स्वरोजगारों और सरकारी अनुदानों तथा सांस्थिक वित्त के सहारे सामान्यत दो वषरे की अवधि में परिवारों की आमदनी में बढ़ोत्तरी हो जाये और वे गरीबी रेखा से उपर उठ जायें. 10 वर्षो के शासनकाल में राज्य सरकार ने ऐसा कोई विवरण प्रकाशित नहीं किया है. गरीबी बहुआयामी अभावग्रस्तता करे कहते हैं. पारिवारिक आमदनी, रोजगार, बचत और निवेश की शक्ति, कुपोषण मुक्त स्वस्थ्य जीवन, पेयजल, आवास, स्वच्छता, पर्यावरण, शिक्षा, सिंचाई, विद्युत, पथ, परिवहन, विपणन एवं सुरक्षा गरीबी उन्मूलन के आयाम हैं. समेकित ग्रामीण विकास की अवधारणा मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व काल में उपजी और नोडल संस्था के रूप में डीआरडीए (जिला ग्रामीण विकास अभिकरण) संस्थापित हुई. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में कृषि की उत्पादकता बढ़ाने और पारिवारिक आय में वृद्धि के लिये गैर-कृषि व्यवसायों एवं उद्योगों को स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना के अंतर्गत ठोस आधार प्रदान करने के लिए विभिन्न राज्यों में अभियान संचालित हुए. अन्य राज्यों में स्वसहायता समूहों तथा माइक्रोफ़ाइनेंस के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पर्याप्त सुधार संभव हुआ है. किंतु ये सारे कार्यक्रम झारखंड में अंकुरित नहीं हो पाये.शिबू मंत्रिमंडलनवनियुक्त शिबू सोरेन मंत्रिमंडल की प्रथम बैठक 30.12.09 को आयोजित हुई और बीपीएल सूची के पुनरीक्षण का निर्णय लिया गया. संभवत: 10 वर्षो के इतिहास में यह पहला अवसर था कि मंत्रीपरिषद की बैठक के एजेंडा में बीपीएल सूची का विषय शामिल किया गया. यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है कि मंत्रीपरिषद को यह जिज्ञासा नहीं हुई कि कोई बीस वर्षो से चल रही बीपीएल सूची में जो भी परिवार सम्मिलित हैं, सही या गलत, उनमें से कितने किस रूप में लाभान्वित हुए, कितने बीपीएल परिवार एपीएल हुए. विकास योजनाओं से किस रूप में ये लाभान्वित हुए.


डीआरडीए एक बड़ी जिम्मेदारी

जब 1980 में भारत सरकार ने विस्तृत दिशा-निर्देश निर्गत करते हुए प्रत्येक जिला स्तर पर सोसाइटिज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के अंतर्गत डीआरडीए के गठन एवं निबंधन का निर्णय लिया तो उसमें डीआरडीए के लिए विभिन्न कार्य तय किये गये. स्वीकृति वाई लाज के अनुसार स्वैच्छी संस्था के रूप में डीआरडीए को निम्नलिखित मुख्य कृत्यों एवं कत्तर्व्यों का निर्वहन करना है-1. गरीब परिवारों को पहचान, ग्रामवार एवं प्रखंडवार बीपीएल सूची का निर्माण और प्रत्येक पांच वर्षो में कम से कम एक बार सूची का विधिवत सर्वेक्षण संपदान. भारतीय संविधान (73वां संशोधन) अधिनियम 1992 के प्रावधानानुसार गरीब परिवारों को पहचान की संवैधानिक शक्ति ग्रामसभा को प्रदत्त की गयी और डीआरडीए से अपेक्षा की गयी कि सूची पुनरीक्षण एवं अवद्यतीकरण में डीआरडीए ग्राम सभा को तकनीकी सहायता प्रदान करेगा.2. गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों एवं अन्य विकास कार्यो के लिए ग्राम सभाओं एवं पंचायतों के परामर्श से वार्षिक एवं पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण.3. बैकों के साथ समन्वय स्थगित कर सांस्थिक वित्त की उपलब्धि, सरकारी अंशदान का सदुयोग एवं उत्पादक परियोजनाओं का निरुपण, अंतर्विभागीय समन्वय एवं समीक्षा और जनजागरुकता की व्यवस्था.4. गरीब परिवारों का स्वयं सहायता समूह गठित कर उन्हें वित्त, प्रबंधन, विपणन एवं प्रशिक्षण सुनिश्चित करना तथा गरीब परिवारों को स्वरोजगार कार्यक्रम के अंतर्गत तीन वषरें में गरीबी रेखा से उपर ले जाना.प्रत्येक डीआरडीए की एक गवर्निग बॉडी अधिसूचित है, जिसमें जिले से निर्वाचित सांसदों-विधायकों के अतिरिक्त छह-सात अन्य सदस्य है जो जिलास्तर पर शीर्ष संस्था के रूप में कार्य करती है. उपायुक्त इसके अध्यक्ष है

माया की माया अपरम्पार

राहुल कुमार :
माया की माया वहीं जानें...
वैसे कांशीराम भी मायावती का सही आकलन कर पाए थे तभी तो अपनी वसीयत में, बक़ौल बहन जी, यह कह गए कि गली, नुक्कड़, चौबारों पर मायावती की प्रतिमाएँ लगें.
मायावती कहती हैं कि कौन सा क़ानून जीवित लोगों की मूर्तियाँ लगाने की मनाही करता है.
सच तो है....और कौन सा क़ानून इस बात की मनाही करता है कि अपना (या अपने मार्गदर्शक का) जन्मदिन धूमधाम से न मनाया जाए.
आम करदाता को तो ख़ुश होना चाहिए कि कम से कम नज़र तो आ रहा है कि उसकी मेहनत की कमाई कहाँ जा रही है.
अन्य नेता तो इस पैसे को हज़म कर जाते हैं और डकार भी नहीं लेते.
मायवती की बुराइयाँ ढूँढने वाले ज़रा उनकी अच्छाइयों पर तो नज़र डालें.
हज़ार रुपये के नोटों की माला पहन कर उन्होंने संदेश दिया है कि बाग़ से फूलों को मत नोंचों.
उन्हें खिला रहने दो माला में मत पिरोओ. नोटों से काम चलाओ.
पर्यावरण की इतनी चिंता है और किसी को.
कॉंग्रेस ने महारैली को सर्कस कहा.
बताइए ऐसा कोई सर्कस देखा है जहाँ टिकट न लेना पड़े.
तो जनता अगर बिना पैसा ख़र्च किए यह सर्कस देख कर अपन मनोरंजन कर रही है तो विपक्ष के पेट में क्यों दर्द हो रहा है.
मायावती जी, बहन जी, आप यूँही फूलें फलें....नहीं शायद मुहावरा बदलना पड़ेगा....आप यूँही नोटों के हार पहनती रहें...
हम क्यों दुखी हैं...यह एक हज़ार रुपये हमारी जेब में थोड़े ही आने वाले थे...हमने तो एक हज़ार का नोट छू कर भी नहीं देखा है.
भैया, अपने सौ-सौ के नोटों को संभालो और ख़ुश रहो.

मायावती और मूर्ति प्रेम

राहुल कुमार :
पार्कों में क़तार में खड़े पत्थर के हाथियों की सूँड या पूँछ 'मनुवादी गुंडे' तोड़ सकते हैं और उनकी रक्षा के लिए 'बहनजी' अपनी पुलिस पर भरोसा भी नहीं कर सकतीं.
जब दो हज़ार करोड़ की लागत से स्मारक बनाए गए हैं तो उनकी हिफ़ाज़त पर महज 53 करोड़ रुपए ख़र्च करने में क्या बुराई है? 'दलितों के आत्मसम्मान' के मायावती के तर्क और 'अरबों के आत्मसम्मान' के सद्दाम के नारे में फ़र्क़ दिखना बंद हो गया है.
ज़्यादातर मामलों में सद्दाम और मायावती की तुलना नहीं हो सकती लेकिन जीते-जी अपनी मूर्तियाँ बनवाने का शौक़ दोनों में एक जैसा दिखता है.
अपनी मूर्तियाँ लगवाने की गहरी ललक के पीछे कहीं एक गहरा अविश्वास है कि इतिहास के गर्त में जाने के बाद शायद लोग याद न रखें. मगर शख़्सियतों का आकलन इतिहास अपने निर्मम तरीक़े से करता है और उसमें मूर्तियाँ नहीं गिनी जातीं.
सोवियत संघ के विघटन के बाद क्रेमलिन में धड़ से टूटकर गिरा हुआ लेनिन की मूर्ति का सिर हो या फ़िरदौस चौक पर जंज़ीरों से खींचकर गिराई गई सद्दाम की मूर्ति, ये इतना तो ज़रूर बताती हैं कि उनके ज़रिए बहुत लंबे समय तक लोगों के दिलों पर राज नहीं किया जा सकता.
कहने का ये मतलब नहीं है कि मायावती की मूर्तियों के साथ भी ऐसा ही होगा या ऐसा ही होना चाहिए, मगर वे शायद ये नहीं समझ पा रही हैं कि ज्यादातर मूर्तियों की वर्ष के 364 दिन एक ही उपयोगिता होती है-- कबूतरों और कौव्वों का 'सुलभ शौचालय', 365वें दिन धुलाई के बाद माल्यार्पण.
स्मारकों की रक्षा के लिए बनाए जा रहे विशेष सुरक्षा बल में चिड़ियों को भगाने वालों को भर्ती किया जा रहा हो तो बात अलग है.
वैसे सुना है कि उन्हें किसी ने चाँद पर ज़मीन का टुकड़ा भेंट किया है, वहाँ मूर्तियाँ लगवाने के बारे में उन्हें सोचना चाहिए क्योंकि वहाँ कौव्वे और कबूतर नहीं हैं.