शनिवार, 24 सितंबर 2011

इतिहास के झरोखे में जयपुर

दोस्तों, हाल में मै एक नेशनल न्यूज़ पेपर के जयपुर संस्करण के लिए बतौर पत्रकार के रूप में अपना पहला कदम पत्रकारिता में रखा हूँ. एक पत्रकार होने के नाते जयपुर आने के बाद पिछले एक सप्प्ताह से मै इस शहर के इतिहास को जानने और समझने का प्रयास कर रहा हूँ. खासकर मै इस बात को लेकर जयादा परेशान था की इस शहर को गुलाबी शहर क्यों कहा जाता है? ऐसा क्या है इस शहर में जिसके कारण इसे गुलाबी शहर के उप नाम से जाना जाता है इस दौरान मै जयपुर के बारे में लिखी हुयी किताबों को खंघालना शुरू किया तथा यहाँ के रहने वाले कई लोगों से इस सिलसिले में जानने की कोशिश की. दरसल इस शहर की स्थापना १७२८ में आंबेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय के द्वारा की गयी थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए भी जाना जाता है। यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई मानसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं।बाद में एक और द्वार भी बना जो न्यू गेट कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह १११ फुट(३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं, और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शह के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वेधशाला, जंतर मंतर, जयपुर भी हैं। जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। शहर के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य का नाम आज भी प्रसिद्ध है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहा समुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। १९वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या ,६०,००० थी जो अब बढ़ कर २००१ के आंकड़ों के अनुसार २३,३४,३१९ हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों में धातु, संगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन आदि शामिल हैं। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर की वास्तु के बारे में कहा जाता है ,कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नही मिलेगा।
सत्रहवीं शताब्दी मे जब मुगल अपनी ताकत खोने लगा ,तो समूचे भारत में अराजकता सिर उठाने लगी, ऐसे दौर में राजपूताना की आमेर रियासत, एक बडी ताकत के रूप में उभरी. जाहिर है कि महाराजा सवाई जयसिंह को तबमीलों के दायरे में फ़ैली अपनी रियासत संभालने और सुचारु राजकाज संचालन के लिये आमेर छोटा लगने लगा,और इस तरह से इस नई राजधानी के रूप में जयपुर की कल्पना की गई, और बडी तैयारियों के साथ इस कल्पना को साकार रूप देने की शुरुआत हुई. इस शहर की नींव कहां रखी गई, इसके बारे मे मतभेद हैं,किंतु इतिहासकारों के अनुसार तालकटोरा के निकट स्थित शिकार की होदी से इस शहर के निर्माण की शुरुआत हुई। राजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने यह शहर बसाने से पहले इसकी सुरक्षा की भी काफी चिंता की थी और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही सात मजबूत दरवाजों के साथ किलाबंदी की गई थी। जयसिंह ने हालाँकि मराठों के हमलों की चिंता से अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिए चारदीवारी बनवाई थी, लेकिन उन्हें शायद मौजूदा समय की सुरक्षा समस्याओं का भान नहीं था। इतिहास की पुस्तकों में जयपुर के इतिहास के अनुसार यह देश का पहला पूरी योजना से बनाया गया शहर था और स्थापना के समय राजा जयसिंह ने अपनी राजधानी आमेर में बढ़ती आबादी और पानी की समस्या को ध्यान में रखकर ही इसका विकास किया था। नगर के निर्माण का काम १७२७ में शुरू हुआ और प्रमुख स्थानों के बनने में करीब चार साल लगे। यह शहर नौ खंडों में विभाजित किया गया था, जिसमें दो खंडों में राजकीय इमारतें और राजमहलों को बसाया गया था। राजा को शिल्पशास्त्र के आधार पर यह नगर बसाने की राय एक बंगाली ब्राह्मण विद्याधर भट्टाचार्य ने दी थी। यह शहर प्रारंभ से ही 'गुलाबी' नगर नहीं था बल्कि अन्य सामान्य नगरों की ही तरह था, लेकिन १८५३ में जब वेल्स के राजकुमार आए तो महाराजा रामसिंह के आदेश से पूरे शहर को गुलाबी रंग से रंग जादुई आकर्षण प्रदान करने की कोशिश की गई थी। उसी के बाद से यह शहर 'गुलाबी नगरी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। सुंदर भवनों के आकर्षक स्थापत्य वाले, दो सौ वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल में फैले जयपुर में जलमहल, जंतर-मंतर, आमेर महल, नाहरगढ़ का किला, हवामहल और आमेर का किला राजपूतों के वास्तुशिल्प के बेजोड़ नमूने हैं।

बुधवार, 21 सितंबर 2011

जी करता है!



जी
करता है आज एक धारा बन जाऊं,
दरिया
से सागर तले कही खो जाऊं.
मौत भी मुझे पा सके,
ऐसे वीरान में कही लुप् हो जाऊं.

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

यादें




अजनबी शहर के अजनबी रास्ते ,
मेरी
तन्हाई पर मुस्कुराते रहे
मैं बहुत देर तक यूँही चलता रहा ,
तुम
बहुत देर तक याद आते रहे .

बुधवार, 7 सितंबर 2011

जनभावना की जीत

सामाजीक कार्यकर्त्ता अन्ना हजारे के द्वरा भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन में आखिरकार संसद भी बधाई की पात्र बनी । जनभावना को सम्मान देते हुए सभी राजनीतिक दलों के सासंदो ने जनलोक पाल विषय पर चर्चा के साथ-साथ अण्णा से अनश्न समाप्त करने की गुहार लगाई। सरकार ने भी अपने रुख में नरमी दिखाते हुए अण्णा के तीन मांगो को संसद में सर्वसम्मति से स्विकार कर लिया। जनलोकपाल के तीनों मांगो पर चर्चा का आरंम्भ विपक्ष के नेता सुषमा स्वराज ने अपने मंझे अंदाज मे शुरु की और सरकार के तरफ से संदीप दीक्षित ने जजों को छोड़कर लोकपाल विधेयक के प्रावधानों के प्रति अपनी सहमति रखी । इसे देखकर तो ऐसा लगने लगा था की संसद जनलोकपाल और अण्णा के स्वास्थ्य को लेकर काफी संजीदा है लेकिन बहस जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया उसमें हल्कापन आता गया। इस पूरे बहस के दैरान यह देखने को मिला की सांसद कितने अनुशासित, धैर्यवान और समझदार हैं। इन्हें इस बात की जरा भी परवाह नहीं थी कि उनकी ये हरकतें देशवासी भी देख रहें है। बार-बार सभापति द्वारा निर्धारित समय-सीमा समाप्त होने के संकेत दिए जाने के बावजूद सदस्य जिस तरह से उनके निर्देशों को अनसुना कर रहे थे, वह देश की सर्वोच्चय संस्था संसद की गरिमा के विपरीत था।

रामलीला मैदान के मंच से अभिनेता ओमपुरी ने सांसदो पर जिस तरह की टिप्पणी की उसे भी सही नहीं ठहराया जा सकता। हलांकि इस पर बाद में वे माफी भी मांग लिए थे। लेकिन इस अभद्रता पर जो सांसद संसद में सबसे ज्यादा बोल रहे थे वे खुद देश के प्रथम व्यक्ति महामहिम राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को सफेद हाथी तक कह डाला। क्या इसके लिए इन्हें माफी नहीं मांगनी चाहिए? यह सिलसिला यहीं तक नहीं थमा पूर्व रेल मंत्री लालू यादव ने जिस तरह से अण्णा के अनशन पर चुटकी लेते हुए उनकी खिल्ली उड़ाई अससे इन लोगों की संसद और मुद्दों के प्रति निष्ठा और गहराई मापी जा सकती है।

बहराल राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर सांसदों की बहस कितनी कारगर रही वो तो आने वाले विधान सभा चुनाव में ही पता चल पाएगा। सरकार बड़ी चतुराई से अण्णा के तीनों मांगो पर हामी भर कर आंदोलन का पटापेक्ष तो कर दिया है लेकिन जनलोकपाल पर सरकार की क्या रुख होती है यह तो आने वाले समय में ही पता चल पाएगा।